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ग़ज़ल : तुम्हारा प्रेम ही - अरुन शर्मा 'अनन्त'

(बह्र: हज़ज़ मुसम्मन सालिम )
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन

तुम्हारा प्रेम ही अक्सर मुझे मगरूर करता है
तुम्हारा प्रेम ही अक्सर मुझे मजबूर करता है

तुम्हारा प्रेम ही खुशियों का इक साधन मेरी खातिर
तुम्हारा प्रेम ही खुशियों से कोसो दूर करता है,

तुम्हारा प्रेम ही हिम्मत मुझे मुश्किल घड़ी में दे,
तुम्हारा प्रेम ही तो हौंसला भी चूर करता है

तुम्हारा प्रेम ही मरहम बने जख्मों पे लग जाए ,
तुम्हारा प्रेम ही तो घाव को नासूर करता है

तुम्हारा प्रेम ही अस्तित्व मिटाने को सदा आतुर,
तुम्हारा प्रेम ही रक्षा मेरी भरपूर करता है... 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 12:47am

क्या कमाल है !! बधाई भाई...

शुभ-शुभ

Comment by वीनस केसरी on October 1, 2013 at 10:50pm

वाह वा भाई

जिंदाबाद जिंदाबाद
क्या मुरस्सा ग़ज़ल हुई है ...

इस अभिनव प्रयोग की सफलता पर आपको शत शत बधाई

एक एक शेर पर ढेरो दाद ,,,,,

अस्तित्व = २२१ होता है

ज़रा इस मिसरे को फिर से देखिएगा

Comment by Neeraj Neer on October 1, 2013 at 9:10am

बहुर ही सुन्दर रचना आदरणीय अरुण जी .. बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 6:59am

बहुत सुन्दर प्रस्तुति! आपको हार्दिक बधाई!

लेकिन आपके कद के हिसाब से ये रचना कमतर है!

सादर!

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 30, 2013 at 10:42pm

प्रेम के विरोधाभास का लाजावाब प्रदर्शन । संयोग वियोग श्रृंगारित रचना पर बधाई बधाई.................

Comment by मोहन बेगोवाल on September 30, 2013 at 9:47pm

 प्रिय अरुण जी,

बहुत ही प्यारी मुसलसल गजल पढने को मिली  सभी शेर बहुत उम्दा  ये बहुत ही प्यारा लगा 

तुम्हारा प्रेम ही मरहम बने जख्मों पे लग जाए ,
तुम्हारा प्रेम ही तो घाव को नासूर करता है - बधाई हो 

Comment by MAHIMA SHREE on September 30, 2013 at 9:28pm

तुम्हारा प्रेम ही अस्तित्व मिटाने को सदा आतुर,
तुम्हारा प्रेम ही रक्षा मेरी भरपूर करता है... .......        क्या बात है बहुत ही सुंदर .... बधाई आदरणीय अरुण जी

Comment by ram shiromani pathak on September 30, 2013 at 8:24pm

वाह आदरणीय  भाई अरुण शर्मा  जी ,बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है /

बहुत बहुत बधाई आपको //सादर

Comment by shalini rastogi on September 30, 2013 at 6:40pm

प्रेम के रंग में सराबोर सुन्दर ग़ज़ल ... प्रेम को पूर्णतया परिभाषित करती हुई .. हर अशआर प्रेम की नई संभावनाओं और सीमाओं को तलाशता हुआ .. वाह! दिली मुबारकबाद कुबूल करें !

Comment by विजय मिश्र on September 30, 2013 at 6:09pm
प्यार पर प्यार से लिखी प्यारी गज़ल , निश्चित रूप से अंतिम पंक्ति श्रेष्ठ भाव लिए हुए है , सचमुच ईश्वर का विस्तार ऐसा ही है - प्रभव से पराभव तक . बधाई अरुनजी .

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