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बचपन, पंछी और किसान

बचपन, पंछी और किसान

बचपन
अकेला बचपन,
न कोई संगी न साथी.
मुँह अंधेरे माता पिता घर से निकल जाते,
कर जाते मुझे आया के हवाले;
शाम को वे घर आते थके मांदे,
मैं रूठती अभिमान करती
तब पिता बड़े प्यार से कहते-
‘’बेटे! हम काम करते हैं तुम्हारे ही
उज्ज्वल भविष्य के वास्ते.’’

पंछी
सूनी आँखें ताक रही थीं
सूना आकाश,
बंद मुट्ठी में भुरभुरी हो कर,
बिखर रहे थे ज़मीन पर,
बिस्कुट के चन्द टुकड़े.
देख रही थी एक नन्ही चिड़िया
आँखें झिबझिबाती, पर बड़ी चौकन्नी -
मौका देख ले गयी फुर्र
बिस्कुट के वे चंद टुकड़े.
मैं खुश हुई कुछ चकित भी,
‘काश! मैं भी चिड़िया होती,
उड़ती, अकेली कभी न रहती.
चिड़िया मुझसे लगी घुलने मिलने,
जो मैं खाती उसे भी खिलाती,
बस गया एक कलरवित संसार
और, गूँज उठा सूना बचपन मधुर रव से.

दौड़ती मैं खेतों की क्यारियों में,
पक्षीगण खाते कीड़े मकोड़े -
जब उड़ाती मैं पतंग
वे हवा में गोता खाते.
मिल गयी थी गति बचपन को,
बहने लगा झील का पानी नदी बन के.

किसान
किसान खेतों का राजा,
बीज उगाता, कंद मूल बोता
पालनहारा.
प्रकृति मेहरबान,
रिम झिम मेह बरसता,
फ़सल लहलहाते.
पक्षीगण खाते कीट पतंग
वे फ़सलों के रखवाले.

हे किसान!
स्वार्थ कहूँ , लोभ कहूँ,
तेरी मजबूरी या प्रगति कहूँ.
कर कीट नाशक का छिड़काव,
अपने मूछों पर तू देकर ताव,
बचा तो लिया फ़सलें,

पर हाय रे!

पंछी तेरी कौन सुनें?
किया तूने जिसका रक्षण,
हुआ काल कवलित कर उसका ही भक्षण.

भोला बचपन मूक देखता
इंसानी दांव-पेंच,
मन कहता “ओ भोले नभचर
दूर ही से देख –
इन फ़सलों में ज़हर भरा है
मानव को न लाज ज़रा है,
कर दी उसने अतिरेक.”
“ अब उड़ चल तू नील गगन में
नए क्षितिज की नयी खोज में
जो अशुभ हैं उन स्मृतियों को
अपने पीछे फेंक”
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr.Prachi Singh on July 31, 2013 at 10:05am

निर्मल निश्छल बचपन बना लेता पंछियों से दिल का रिश्ता...उनके पंखों से उड़ता मन ही मन ऊंचीं उड़ान 

पर .... खेतों में लहलहाती आकर्षित करती, पंछियों को ललचाती  फसलों में छुपे कीटनाशक... ( उफ्फ याद आ गया आज से १८ साल पहले एक बेहद खूबसूरत मोर का मेरी नज़रों के सामने तडपते तडपते छत पर आ कर दम तोड़ देना)

पंछियों को तलाशना होगा एक नया क्षितिज क्योंकि जहाँ तक मानव है वहाँ तक उसका लोभ अबोल पंछियों को जीने कहाँ देगा..

बहुत सुन्दर भाव..

मैं भी आ० बृजेश जी से सहमत हूँ... ये रचना अभी कुछ कसावट मांगती है. कहीं कहीं व्याकरणी दोष भी हैं 

जैसे, 

अपने मूछों पर तू देकर ताव,
बचा तो लिया फ़सलें

सादर

 

Comment by Meena Pathak on July 26, 2013 at 7:26pm

“ अब उड़ चल तू नील गगन में
नए क्षितिज की नयी खोज में
जो अशुभ हैं उन स्मृतियों को
अपने पीछे फेंक”.................बहुत सुन्दर प्रस्तुति .... बधाई स्वीकारें    सादर 

Comment by coontee mukerji on July 26, 2013 at 2:28am

आपकी बात ठीक है बृजेश जी. मैं शरद जी की सहायता से इसको पुनः एडीटिंग करूँगी. आपका मार्गदर्शन मेरे लिये बहुत मायने रखता है.आपको हृदय से धन्यवाद.

Comment by बृजेश नीरज on July 25, 2013 at 11:05am

बहुत ही सुन्दर! भावों को बहुत सुन्दरता से पिरोया है आपने! आपकी भावप्रवणता एक मिसाल है। आपको हार्दिक बधाई!
एक निवेदन करना चाहता हूं कि मुझे लगता है कि इन कविताओं की यदि एडिटिंग कर दी जाए तो ये और निखर आएंगी। ये मेरे निजी विचार भर हैं। आप देख लें।
शुभकामनाओं सहित।
सादर!

Comment by Shyam Narain Verma on July 24, 2013 at 5:18pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.
Comment by ram shiromani pathak on July 24, 2013 at 4:30pm

भोला बचपन मूक देखता
इंसानी दांव-पेंच,
मन कहता “ओ भोले नभचर
दूर ही से देख –
इन फ़सलों में ज़हर भरा है
मानव को न लाज ज़रा है,
कर दी उसने अतिरेक.”
“ अब उड़ चल तू नील गगन में
नए क्षितिज की नयी खोज में
जो अशुभ हैं उन स्मृतियों को
अपने पीछे फेंक”//वाह क्या विम्ब खीचा है

आदरणीया कुन्ती दीदी हार्दिक बधाई आपको //सादर

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