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दीप पर्व पर एक गीत: फिर से दीप बने

कुहनी तक देखो कुम्हार के

फिर से हाथ सने

फिर से चढ़ी चाक पर मिट्टी

फिर से दीप बने

 

 

बंद हो गई सिसकी जो

आँगन में रहती थी

परती पड़ी जमीन हमेशा

उन बिन दहती थी

उनके आने पर बाबू जी

फिर से तने तने

 

 

आने लगी महक जबसे

तेरे इन गज़रों से

सय्यादों ने उड़ा दिए सब

पंछी पिंजरों से

टुकड़ा एक धूप का घर में

चल आया घुटने

 

 

मिट्टी ने आकार ले लिया

तम को हरने का

ज्योति पर्व पर है संदेसा

और संवरने का

मिट्टी से ही बनी सुराही

और घड़े चिकने

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Comment

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Comment by Vindu Babu on August 7, 2013 at 7:40pm
आदरणीय राणप्रताप जी पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ।
आपका प्रेरक नवगीत ने बहुत प्रभावित किया।
इस उन्नत रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें महोदय!
सादर
Comment by Vasundhara pandey on August 7, 2013 at 2:56pm

बहुत सुन्दर ...बहुत सुन्दर ,,,  कितना सुन्दर पिरोया आपने ...बधाई बहुत बहुत !

Comment by वीनस केसरी on November 14, 2012 at 2:36pm

आने लगी महक जबसे

तेरे इन गज़रों से

सय्यादों ने उड़ा दिए सब

पंछी पिंजरों से

टुकड़ा एक धूप का घर में

चल आया घुटने


क्या कहने साहब
लूट लिया
जिंदाबाद

Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on November 14, 2012 at 1:49pm

बहुत ही सुन्दर भाव ....और इस नव गीत के लिए 

अतेन्द्र

की तरफ से हार्दिक बधाई .........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 14, 2012 at 12:45pm

बहुत सुन्दर नव गीत आ. राणा प्रताप जी

कुहनी तक देखो कुम्हार के
फिर से हाथ सने
फिर से चढ़ी चाक पर मिट्टी
फिर से दीप बने................ बहुत सुन्दर सजीव शब्द चित्र

मिट्टी ने आकार ले लिया
तम को हरने का
ज्योति पर्व पर है संदेसा
और संवरने का................... बहुत खूबसूरत भाव शब्द

हार्दिक बधाई इस मनमोहक गीत के लिए आदरणीय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 14, 2012 at 11:21am

देर से आये, मगर क्या दुरुस्त आये, भाई राणाजी. .. !

बहुत दिनों बाद ’नवगीत’ ने हुलस कर शृंगार किया है. मानों पता दिया हो अपने होने का. प्रत्येक प्रतीक अद्भुत ! एकदम से छू रहे हैं. 

समझ सकता हूँ, ’आँगन’ के हरियाने को, खिले-खिले बाबूजी का तने-तने होने को, पिंजरों के बंधों के अदबदा कर खुलने को ! लेकिन मुग्ध कर दिया धूप का घुटने चलना ! .. वाह, राणाभाई, वाह !

उजास का कनखियों से विभोर हो निहारना.. . साथ ही, नरम-नरम ऋतुओं का गलबहियाँ डाल झूलना.. . मुबारक हो !

बधाई-बधाई-बधाई.. .

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