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न जाने कब छुआ था कागज़ का बदन स्याही से मैंने

न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?

उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,
अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/
बहुत वक़्त बीत गया है
बहुत सफ़र बीत गया है
याद भी नहीं मुझे
न जाने कब कर ली थी दोस्ती
इस तन्हाई से मैंने
न जाने कब छुआ था
कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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Comment by Pushyamitra Upadhyay on October 5, 2012 at 8:35pm
dhanyavaad mitro...
Comment by seema agrawal on October 5, 2012 at 7:18pm

बहुत नयापन और ताज़गी भरी रचना ....बधाई पुष्यमित्र जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 5, 2012 at 12:41pm

सुन्दर प्रस्तुति 

Comment by राज़ नवादवी on October 5, 2012 at 12:31pm

//न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?//

बहुत खूब ख्याल, बधाई आपको. 

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