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                 ग़ज़ल


दोस्तों, कुछ  रात  ऐसी  भी थी, जब  सोया  नहीं  मैं |
दर्द  से  तड़पा  बहुत  पर  चीख  कर  रोया  नहीं  मैं  ||

कोई  शीशा  सा  तड़क  कर,  टूट, दिल  में  आ चुभा,
इसलिए  उस  रात भर तक, ख्वाब में खोया नहीं मैं ||

कौन सी मंजिल है किसकी और कहाँ किसका मकाँ ?
कौन  है  इस  राह  पर  भटका  हुआ, वो  या  कहीं मैं ?

ज़िन्दगी   के   मायने,  अहसान  हैं   या  क़ि  सज़ा ?
ये   थे   ऐसे  प्रश्न   जैसे   तुम   नहीं   हो  या नहीं मैं ||

सच, बहुत कडवी
लगी  थी,  ज़िन्दगी जब  दर्द   थी.

आ गया था खुद ही चल कर, शोलों में गोया कहीं मैं ||


                     रचनाकार - अभय दीपराज

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Comment

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Comment by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 26, 2010 at 11:11am
प्रिय मित्र  भास्कर जी बहुत-बहुत धन्यवाद, कि - आप ने मेरी रचना को पढ़ा और मेरे प्रयास को सार्थक माना | आपका अभय दीपराज
Comment by Bhasker Agrawal on December 26, 2010 at 10:11am
वाह बहुत खूब..अपनी स्तिथि को बड़े ही कलात्मक ढंग से बयां किया आपने..

कृपया ध्यान दे...

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