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GAZAL ग़ज़ल by अज़ीज़ बेलगामी

 

ग़ज़ल
by
अज़ीज़ बेलगामी

 

हम समझते रहे हयात गयी
क्या खबर थी बस एक रात गयी


खान्खाहूँ से मैं निकल आया
अब वो महदूद काएनात गयी


क्या शिकायत मुक़द्दमा कैसा
जान ही जाए वारदात गयी


जम के बरसें गे जंग के बादल
के फिजाए मुज़ाकिरात गयी


बेसदा क्योँ न हों ये नक्कारे
मेरी आवाज़ शश जिहात गयी


खौफे पुरशिश की जो अमीन नहीं
यूं समझ लीजे वो हयात गयी


फिर उजालौं के दिन फिरे हैं अज़ीज़
लो अंधेरो तुम्हारी रात गयी

उर्दू शब्दौं का मतलब :

खान्खाहूँ = वो गुफाएं जहाँ  घर बार छोड़ कर इश्वर की याद में जीवन बिताया जाता है
महदूद = Limited
जाए वारदात = वारदात की जगह, वो जगह जहाँ हादसा हुवा हो;
फिजाए मुज़ाकिरात = मुजाकिरात का या बात चीत का माहौल; Dialogue का माहौल
शश जिहात = Six Derections ( दायें - बाएं  - आगे - पीछे - ऊपर - निचे )
खौफे पुरशिश = मौत के बाद अपने पालनहार के रु बरु हाज़िर होकर जीवन का हिसाब देने का डर;
अमीन = अमानतदार Custodian








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Comment

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Comment by Harjeet Singh Khalsa on December 19, 2010 at 4:52pm

जी सच मे बहुत ही सुंदर ग़ज़ल....हमें भी प्रेरित करती है कुछ लिखने को...शुक्रिया पोस्ट करने के लिए...


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 19, 2010 at 4:35pm

वाह वाह वाह , ये रही उस्तादों वाली ग़ज़ल, मतले से लेकर मकते तक हरेक शे'र बेहतरीन है, साथ ही उर्दू शब्दों का अलग से अर्थ लिख देने से हिंदी भाषियों को बहुत ही आसानी हो गई , अज़ीज़ साहब दाद कुबूल कीजिये एक बेहतरीन ख्यालात की ग़ज़ल प्रस्तुत करने पर , आपको पढ़ना यक़ीनन सुकून दे रहा है | आगे भी आपकी ग़ज़लों का इन्तजार और स्वागत रहेगा OBO के इस मंच पर |

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