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मन्त्र जन्मेजयी पे ये भी अधर डोले हैं-gazal

2122 1222 1212 22


शख्स हर वक्त जो नफ़रत का ज़हर घोले हैं।
खुद को शाइर भला वो जाने कैसे बोले हैं।।


क़ौम की एकता के नाम पर जो भड़काते।
ऐसे बहुरूपिये गिरगिट से बदले चोले हैं।।


मज़हबी आचरण जो सबका जाँचते अक्सर।
पूछिये क्या कभी वो लोग खुद को तोले हैं?


तालियाँ घर के ही लोगों ने जो बजा दी तो।
अपनी औकात से वो ज़्यादा ज़ुबाँ खोले हैं।।


झंडाबरदार-ए-ईमान जो बने खुद से।
वो तो साहित्य की गर्दन पड़े सपोले हैं।।


भक्त पंकज भी तो है नाग यज्ञ का पोषक।
मन्त्र जन्मेजयी पे ये भी अधर डोले हैं।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 17, 2016 at 3:58pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर आभार।

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 10, 2016 at 10:20pm

आदरनीय पंकज भाई , ग़ज़ल अच्छी हुई है , हार्दिक बधाई । आ. रवि भाई की बातों का खयाल कीजियेगा । बहर मान्य है या नही मै नही कह सकता , शायद मान्य बहर हो ही ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 9, 2016 at 1:35pm
आदरणीय रवि सर मत्ले में "लब से" नहीं है।। गलती से टाइप हो गया है।
Comment by Ravi Shukla on August 9, 2016 at 11:18am

आदरणीय पंकज जी आपक का गजल का ये प्रयोग समझ पर थोडा जोर डालने वाला लगा  इस के लिये आपको बधाई 

मतले के उला में अाापकी दी गई बहर हमें नहीं मिल पाई कुछ टंकण त्रुटि हो रही है शायद

झंडाबरदार  ए ईमान की इजाफत से इसकीी मात्रा गणना मेंं हमें कुछ संशय है गणी जन कृपया मार्ग दर्शन दें 

मकते के सानी में भी हमें बहर नहीं मिल पा रही 

शायद इस गजल को साझा करने में कुछ शीघ्रता हुई हैै । सादर 

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