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वह अलौकिक हेडलाईट – आँखों देखी 6

वह अलौकिक हेडलाईट – आँखों देखी 6

 

      शीतकालीन अंटार्कटिका का अनंत रहस्य हर रोज़ अपने विचित्र रंग-रूप में हमारे सामने उन्मोचित हो रहा था. बर्फ़ के तूफ़ान चल रहे थे जो एक बार शुरु होने पर लगातार घन्टों चला करते. कभी-कभी तो छह सात दिन तक हम पूरी तरह स्टेशन के अंदर बंदी हो जाते थे. 80 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से हवा चलती जो झटके से, जिसे तकनीकी भाषा में Gusting कहते हैं, प्राय: 140 कि.मी.प्र.घ. हो जाती थी. तूफ़ान के आने का पूर्वाभास हमें सैटेलाईट चित्रों से प्राप्त होता था, अत: हम हमेशा उसके लिये तैयार रहते थे. दक्षिण गंगोत्री स्टेशन के बर्फ़ में धँसे होने के कारण बहुत सी असुविधाएँ जैसी थीं, वहीं दूसरी ओर एक लाभ भी हुआ था. ऐसे ब्लिज़ार्ड या बर्फीले तूफ़ान के दौरान प्लाईवुड से बना यह स्टेशन बहुत हद तक सुरक्षित था. उड़ते बर्फ़ के कणों को अपने रास्ते में बड़ी बाधा नहीं मिल रही थी क्योंकि स्टेशन की केवल छत, वह भी उल्टे V-आकार में बर्फ़ की सतह के ऊपर थी. बर्फ़ की कणों को टकराने के लिये बड़े क्षेत्रफल की कोई दीवार नहीं मिलने के कारण वे स्टेशन के पास अधिक मात्रा में जमा नहीं होते थे. हवा की गति के कुछ कम (40-50 कि.मी.प्र.घ.) हो जाने पर थोड़ी बहुत बर्फ़ जमा होती थी क्योंकि उन बारीक कणों को किसी बाधा से टकराने के बाद दूर उड़ा ले जाने वाली ऊर्जा का अभाव होता था. ऐसे यदा-कदा होने वाले बर्फ़ के ढेरों को हमलोग बेलचे से उठाकर फ़ैला देते थे जिससे वे ढेर स्वयं ही बाधा न बन जाएँ लगातार उड़ते बर्फ़ के लिये. यह काम बहुत आसान नहीं था. अंटार्कटिका के विशेष वस्त्रों से अपने को ढँककर, मुँह पर मुखौटा (mask) पहनकर बेलचा आदि सामान हाथ में लिये स्टेशन से बाहर निकलते थे तो पहला कदम बाहर रखते ही तूफ़ान के थपेड़े से अक्सर हम लड़खड़ा जाते. अन्यमनस्क होने पर गिर जाना मामूली बात थी. रूई जैसे बर्फ़ में भारी जूते के साथ आठ-आठ दस-दस इंच तक पैरों का धँस जाना और फिर एक-एक कदम रखते हुए आगे बढ़ना कभी न भूल सकने वाला अनुभव है. मुखौटे तथा चश्मे (snow goggle) के बावजूद आँख की पलकों में और नाक के छेद में बर्फ़ जम जाने से दम घुटने जैसा होता था. ऐसे में परिश्रम और घबराहट से बदन पसीने से तर हो जाता. नुकीली ठण्डी हवा के आक्रमण से आँख से पानी आता और आँख से ढुलकते ही चेहरे पर जम जाता था. देखते ही देखते चश्मे के ऊपर बर्फ़ की तह जम जाती जिसे हम लगातार, मोटे दस्ताने पहने हाथ से हटाने की कोशिश करते. कुछ अनुभव हो जाने के बाद हम जेब में टॉयलेट रोल ले जाने लगे थे...उसी से चश्मे को साफ़ कर लिया करते. यही नहीं हमारे दो-तीन पर्त वाले जूते के अंदर बर्फ़ घुस जाता था और हम लगातार अपनी उंगलियों को चलाते रहते थे जिससे रक्त संचालन बना रहे और उंगलियों में खून न जम जाये. लेकिन हम सभी के लिये सबसे कष्टदायी बात होती नाक का बहना. नाक से पानी बाहर आते ही मूँछ के ऊपर जम जाता. साथ ही मुखौटे के भीतरी भाग को अपने साथ चिपका लेता. जब अपना काम करके हम स्टेशन के अंदर वापस जाने के साथ ही हड़बड़ी में मुखौटा उतारने जाते तो मूँछ उखड़ने लगता. इस तरह हमलोगों को कई बार चोट पहुँची थी.

 

      इन बातों को लिखते हुए एक घटना याद आ गयी. उस समय मौसम अच्छा था और तापमान शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस नीचे. स्टेशन के बाहर किसी गाड़ी या अन्य किसी मशीन की मरम्मत हो रही थी. भारतीय सेना के दो-तीन हवलदार जो मेकेनिक थे, बाहर काम कर रहे थे. हम अन्य सदस्य स्टेशन के भीतर ही थे. अचानक उन हवलदारों में से एक दौड़ते हुए अंदर आकर सीधे डॉक्टर के सामने मुँह खोलकर “आ....आ.....आ” शब्द करने लगे. डॉक्टर साहब ने उसे देखा और फिर हँसकर बोले “घबड़ाओ नहीं और मुँह बंद करके चुपचाप बैठो, निगलना नहीं”. हुआ ऐसा था कि आदतवश जनाब ने कोई पेंच मशीन से खोलकर अपने मुँह में रख लिया था. जब उसे पुन: मशीन में लगाने की बारी आयी और उन्होंने पेंच को खींचा तो जीभ ही बाहर आ गयी थी क्योंकि जीभ का लार (saliva) बर्फ़ बन चुका था. पेंच उसी में फँसे रहने के कारण असावधानी में जीभ को भी बाहर खींच लायी थी. पाँच-सात मिनट बाद स्टेशन के अंदर के गर्म वातावरण में लार गल जाते ही पेंच ढीला होकर निकल आया यद्यपि उनके जीभ और गले का दर्द कई दिनों तक बना रहा.

      मैंने आँखों देखी 5 में कहा था कि स्टेशन ड्यूटी के दौरान मुझे बहुत अनोखे अनुभव हुए. एक बार ऐसी ही ड्यूटी के समय मैं और एक साथी स्टेशन के ए-ब्लॉक (जिसमें हम रहते थे) से बी-ब्लॉक (जिसमें जनरेटर आदि थे) जा रहे थे. इन दोनों ब्लॉक को लकड़ी का बना हुआ एक गलियारा (passage) जोड़ता था जहाँ हीटर नहीं था. हीटर नहीं होने की वजह से उस पैसेज की दीवार पर सख्त बर्फ़ की मोटी पर्त हमेशा जमा रहती थी. हम जैसे ही उस पैसेज में पहुँचे तो देखकर दंग रह गये कि हमारे ही एक सहअभियात्री, जो भारतीय सेना के logistic team में थे, वहाँ खड़े हुए दीवार की बर्फ़ पर अपना सिर ठोंक रहे थे. हमने दौड़कर उन्हें पकड़ा. वे हमारे अच्छे मित्र भी थे अत: उन्हें समझा-बुझाकर स्टेशन के अंदर लाने में देर नहीं लगी. धीरे-धीरे पता चला कि किसी वजह से वे वरिष्ठ अधिकारी अथवा दलनेता से नाराज़ हो गये थे लेकिन अभियान की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए एक अनुशासित सैनिक की भाँति उन्होंने किसी से कोई बहस नहीं की. फिर भी उनके मन की अशांति बढ़ती जा रही थी सो गुस्सा उतारने के लिये उन्होंने वह अभिनव उपाय निकाला था जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है. अगर हम समय से नहीं पहुँचते तो उन्हें गम्भीर चोट लगती. कुछ देर गप-शप करके, चाय पीकर और कैरम का एक गेम खेलकर हमने उन्हें शांत किया तथा सोने के लिये भेज दिया.

      एक और घटना का ज़िक्र करके आज के इस पर्व को विराम दूंगा –
      फिर वही स्टेशन ड्यूटी और कूड़े का बैग लेकर मैं बाहर आसमान के नीचे. स्लेज पर कूड़े का बैग रखा ही था कि देखा हमारे (स्टेशन के) दक्षिण-पश्चिम से कोई गाड़ी आ रही है. गाड़ी का हेडलाईट साफ़ नज़र आ रहा था. मैं देखता रह गया. वह प्रकाश स्थिर नहीं था – कभी ऊपर उठता, कभी थोड़ा नीचे जाता ठीक उसी तरह जैसे ऊबड़-खाबड़ सतह पर चलती हुई गाड़ी के साथ होता है. मुझे लगा थोड़ी ही देर में गाड़ी हम तक पहुँच जाएगी....लेकिन बहुत देर हो गयी उसे देखते हुए. कभी ऐसा भान हुआ कि गाड़ी रुक गयी है. आश्चर्य मुझे केवल इस बात का हो रहा था कि वह प्रकाश हमसे दक्षिण-पश्चिम में था. हमारी कोई गाड़ी कहीं नहीं गयी थी. आने को एकमात्र रूसी ही अपने स्टेशन ‘नोवोलज़ारेव्सकाया (Novolazarevskaya)’ से आ सकते थे. लेकिन वे तो हमसे दक्षिण-पूर्व में थे. फिर ये कौन थे!!! आख़िर मैंने अपने दलनेता को बुलाना उचित समझा. पिछली बार ‘आकाश में आग की लपटों’ का रहस्य उन्होंने ही सुलझाया था. लेकिन इस बार वे इस अद्भुत हेडलाईट के रहस्य को नहीं सुलझा सके. अटकलें लगायी जाने लगीं कि उस दिशा में तो दक्षिण अफ्रीका का सनाय (Sanae) ही सबसे नज़दीकी स्टेशन है. पर वह तो लगभग 400 किलोमीटर दूर था. बिना बताये कोई ऐसे अंटार्कटिका में कहीं नहीं जा धमकता है – वह भी शीतकालीन अंटार्कटिका में! रूसियों से रेडियो पर सम्पर्क करके पूछा गया तो वहाँ से भी कोई समाधान नहीं मिला.
जब दूसरे दिन भी वह हेडलाईट ज्यों का त्यों दिखने लगा तो हममें से कुछ लोगों ने प्रस्ताव रखा कि गाड़ी लेकर उस दिशा में चलकर देखा जाए मामला क्या है, क्योंकि हो सकता है कोई उधर से आ ही रहा हो और उसकी गाड़ी बर्फ़ में फँस गयी हो या फिर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी हो. लेकिन अनुभवी दलनेता ने ऐसा करने से मना किया. वे बोले ‘इंतज़ार करो, जल्दबाज़ी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं’. उनके मन में क्या था पता नहीं लेकिन मैंने एकबार सोचा अवश्य था कि कहीं कोई यू.एफ़.ओ. तो नहीं!! शायद फ़िल्म देखने और विज्ञान सम्बंधी ललित कहानियों को पढ़ते रहने के कारण मेरे मन में ऐसा विचार आया था. हम लोगों का कौतूहल जब चरम पर पहुँचकर शिथिल होना शुरु हुआ तभी रूसी स्टेशन के रेडियो ऑफ़िसर ने हमारे रेडियो ऑफ़िसर से बेतार के माध्यम पूछा “क्या भाई, तुम्हारे अतिथि पहुँचे?” अर्थात वह गाड़ी जिसकी हेडलाईट हम चार-पाँच दिन से देख रहे थे आयी या नहीं. जब हमारे साथी ने स्वीकार किया कि कोई नहीं आया और अब पिछले कुछ घंटे से वह गाड़ी दूर जाती लग रही थी तो रूसी अफ़सर जोर से ठहाका लगाकर हँसा. उसीसे पता चला कि हम जिसे गाड़ी का हेडलाईट समझ रहे थे वह वास्तव में शुक्र ग्रह (Venus) था. अपने खगोलीय चक्र में क्षितिज के ठीक ऊपर और अपने परिक्रमा पथ (orbit) में पृथ्वी के बहुत नज़दीक आ जाने के कारण उसका प्रकाश वायुमण्डल में बर्फ़ के कणों से कुछ इस प्रकार परावर्तित हो रहा था कि वह हमें गाड़ी के हेडलाईट जैसा प्रतीत हो रहा था. हम स्तंभित हो गये और रोमांचित भी हुए इस अनुभूति के साथ कि प्रकृति के विराटत्व के आगे हम कितने बौने हैं.

      अंटार्कटिका मेरे रग-रग में बसने लगा था.......
      (मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 2:16am
आदरणीय शुभ्रांशु जी, आपने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया. स्कूल में भूगोल की पुस्तक में पृथ्वी के इस सुदूरतम महाद्वीप के बारे में कुछ पंक्तियाँ थीं और समुद्र में तैरते हिमखण्डों (आईसबर्ग) का एक रेखाचित्र. बहुत साल बाद जब हमारे जहाज के डेक से जीवन में पहली बार आईसबर्ग देखा था, बस देखता ही रह गया था. खैर, वो बातें फिर कभी सुनाऊंगा. आपको यहाँ बता दूँ कि दक्षिण गंगोत्री के बाद "मैत्री" स्टेशन बना था जो आज भी सक्रिय है. "भारती" तो पिछले वर्ष बना है,वह भी मैत्री से लगभग 3000 किलोमीटर दूर अंटार्कटिका के एक दूसरे अंश में. हार्दिक आभार एक पाठक के रूप में मेरा उत्साहवर्धन करने के लिये. आगे भी लिख रहा हूँ....ऐसे ही मेरी रचनाओं के साथ बने रहियेगा. सादर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 1:59am
भाई राम शिरोमणि जी, आपकी नि:संकोच और स्वत:स्फूर्त सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक आभार.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 1:56am
आदरणीय अशोक रक्ताले साहब, मैं धन्य हुआ कि आपने मेरी रचना को इतना मान दिया. इस स्नेह की निरंतरता बनाये रखियेगा. सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 1:53am
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्र जी,आपने मेरी प्रस्तुति को सराहा क्योंकि आपको वास्तव में पसंद आयी यह रचना जैसा कि आपकी प्रतिक्रिया से ही प्रतीत होता है. सादर आभार.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 1:48am
भाई राहुल जी, हार्दिक आभार आपका. प्रयत्न रहेगा अपने सारे अनुभव आप लोगों से साझा करूँ.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 10, 2013 at 8:20pm

गज़ब का अनुभव....

ऐसी ज़िंदगी, ऐसे नज़ारे, प्रकृति के ऐसे विलक्षण अद्भुत रहस्य जिन्हें आप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं..जैसे एक चलचित्र सा चल जाता है...उस स्वप्नलोक में हम भी विचरण कर आते हैं 

शुक्र गृह का क्षितिज के करीब होना और परिक्रमा पथ में धरती के काफी करीब होने के कारण बर्फ कणों से परावर्तित किरणों का  हेडलाईट जैसा प्रतीत होना कितना पहेली सुलझाने जैसा रहा होगा... यह कल्पनातीत है.

आपकी अन्टार्कटिका के अनुभवों को सांझा करती हर प्रस्तुति मुझे तो अपने अनुभवों की दुनिया में एक समृद्धि सी लगती है.... जिसमें ठहरजाना, महसूस करना, खो जाना... मुझे बहुत प्रिय है 

सादर धन्यवाद आदरणीय 

Comment by Shubhranshu Pandey on December 10, 2013 at 6:44pm

आदरणीय शरदिंदु जी, एक स्वप्न लोक में विचरण कर के आ जाने का अनुभव हो रहा है.

जब अण्टार्टिका अभियान शुरु हुआ था तो मै बहुत छोटा था और धर्मयुग में उस अभियान का फ़ोटॊ देखा था और पढा़ था. लाल रंग के जहाज के सामने भारतीय दल का फ़ोटो आज तक याद है. भारतीय दल में एक महिला डाक्टर थी शायद उनका पेंगुइन के साथ फ़ोटो भी था.मैने पहली बार पेंगुइन का फ़ोटो देखा था.

लेकिन आपने वहाँ कि ऎसी- ऎसी बातें बताइ जो किसी पत्रिका में शायद ही मिलती. अब जीभ के बाहर खिचाने का अनुभव शायद ही किसी के पास हो. शुक्र के चमकने पर इस तरह का अनुभव रोमांचकारी लगा...ना जाने कितने युएफ़ओ फ़िल्मों की याद आ गयी. आनन्द आ गया पढ कर..

अब तो गंगोत्री के बाद नया बेस कैंप भारती तैयार हो गया है.लेकिन आपको शायद लकडी़ के गंगोत्री से ज्यादा अपनापन होगा..

सादर.  

Comment by ram shiromani pathak on December 10, 2013 at 12:10am

मुझे केवल पढ़ाकर इतना आनंद आ गया आदरणीय ……… आपने तो अनुभव किया है
कितना अद्भुत दृश्य रहा होगा। ..........

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 9, 2013 at 10:09pm

आदरणीय शरदिंदु  मुखर्जी साहब सादर, आपकी यह आँखों देखी हमें भी स्वप्नलोक में ले जाती है. एक बार पढ़ना प्रारम्भ किया तो नजर स्क्रीन से हटने का नाम ही नहीं लेती. बहुत सुन्दर जानकारियों को शेयर करने के लिए आपका हार्दिक आभार. जबान पर स्क्रू वाली घटना ने तो अपनी जबान पकड़ने के लिए मजबूर कर दिया. वाह! सादर.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 9, 2013 at 3:16pm

आदरनीय शरदिंदु जी ..रोचक अद्भुत रोमांचित करने वाला और सेना के प्रति हमारी भावनाओं में इजाफा करता शानदार लेख ..अपने लिखा भी इस बेहतरीन तरह से है की मुझे लग रहा है की मैं भी आपके साथ वहीं उस मिशन में था ..घटना दर घटना ...एक एक पल का चित्रण ..आपको सादर बधाई 

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