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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७०

2122 1122 1122 22/ 112

सब्र रक्खो तो ज़रा हाल बयाँ होने तक
आग भी रहती है ख़ामोश धुआँ होने तक //१

समझेंगे आप भला क्यों ये गुमाँ होने तक
इश्क़ होता नहीं है दर्दे फुगाँ होने तक //२

तज्रिबा ये जो है सब आलमे सुग्रा का यहाँ
जाँ गुज़रती है सराबों से निहाँ होने तक //३

मुझको फ़िरदोस ने फिर से है निकाला बाहर
कौन है आलमे बाला में यहाँ होने तक //४

भारी पड़ती है रिहाई पे तमन्ना की कशिश
कौन आज़ाद हुआ दाम गिराँ होने तक //५

ख़्वाब देखे नहीं तो ख़्वाब की ताबीर क्या हो
तीर चलता ही नहीं दस्ते कमाँ होने तक //६

फ़र्द पाए न सुकूं ख़ुद में तो समझो कि वो फिर
ख़ाना बरदोश ही रहता है मकाँ होने तक //७

तौबा कर लूँ तेरी यादों के सिलसिले से मगर
हस्ती मिटती है कहाँ ख़ाके जहाँ होने तक //८

'राज़' मालूम है सबको तू नमाज़ी है नहीं
दो घड़ी बैठ तो ले नस्र-ए- अजाँ होने तक //९

~ राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

दर्दे फुगाँ- आर्तनाद की पीड़ा; आलमे सुग्रा- मनुष्य का शरीर जिसमें सब कुछ है जो ब्रह्माण्ड में है; सराब- मृग-मरीचिका; निहाँ- छिपना, गुप्त होना; फ़िरदोस- स्वर्ग; आलमे बाला- परलोक; दाम- फंदा, पाश, बंधन; गिराँ- भारी, वज़नी; ब दस्ते कमाँ- हाथ में लिए धनुष के साथ; फ़र्द- एक अकेला व्यक्ति; ख़ाना बरदोश- खाना ब दोश; नस्र-ए- अजां- अज़ान की आवाज़ संचारित करना

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Comment by Samar kabeer on November 17, 2018 at 2:54pm

जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

तीर चलता नहीं ब दस्ते कमाँ होने तक'

इस मिसरे की बह्र चेक करें।

 ' सबको मालूम है ऐ 'राज़' तू नमाज़ी है नहीं '

इस मिसरे की बह्र चेक करें ।

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