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दोनों तरफ है कत्ल का सामान बा-अदब -- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" ( गजल )

२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२

वाजिब हुआ करे था जो तकरार मर गया
आजाद जिन्दगी  में  भी  इन्कार मर गया।१।


दोनों तरफ है  कत्ल  का  सामान बा-अदब  
इस पार बच गया था जो उस पार मर गया।२।


जीने लगे  हैं  लोग  यहाँ  खुल  के नफरतें
साँसों की जो महक था वही प्यार मर गया।३।


सौदा वतन का रोज ही शासक यहाँ करें
सैनिक ही नाम  देश  के बेकार मर गया।४।


जो हक बयाँ का  दोस्तो  औजार था कभी  
आमद की लालसा में वो अख़बार मर गया।५।


वैसे नहीं था  यार  तनिक  बोझ उसको पर
बाकी दिनों  की  दौड़  में  इतवार  मर गया।६।


जिसमें बसे  हैं  भेड़िये  आदम  के रूप में
खुश है वो गाँव आज कि गुलदार मर गया।७।


दे दी है  बेबसी  जो  सियासत  ने  यार इक
मुंसिफ का सिर्फ नाम है अधिकार मर गया।८।


बरसों से ठग रहा था  मैं  खुद को मुखौटे से
अच्छा हुआ कि आज वो किरदार मर गया।९।


देते हैं पहले जोर वो कहकर नियम नियम
कहते गजल का बाद में क्यों सार मर गया।१०।


मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by Balram Dhakar on October 27, 2018 at 9:58pm

आदरणीय लक्ष्मण जी, बहुत खूब ग़ज़ल हुई है, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

इस पार बच गया (था) जो  उस पार मर गया

यह मिसरा शायद आपने यूँ कहा होगा, देखिएगा।

तीसरे शे'र के सानी में इस्तेमाल किया गया 'महक' स्त्रीलिंग है, क्या इसे पुल्लिंग के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।

चौथे शे'र का सानी मिसरा बह्र में प्रतीत नहीं हो रहा है।

बाकी सभी शेर ख़ासतौर पर शे'र-ए-आख़िर बहुत पसंद आया।

दिली मुबारक़बाद क़ुबूल फ़रमाएं।

सादर।

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