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सूखी हुई ख्वाहिशें

ज़िन्दगी का दरख्त
हो गया है ज़र्जर
समय की दीमक ने
कर दी हैं जड़ें खोखली
तनाव के थपेड़ों ने
झुलस दी है छाल
ख्वाहिशों के पत्ते
अब सूखने लगे हैं
और झर जाते हैं
प्रतिदिन स्वयं ही
परिस्थितियों की आँधियाँ
उडा ले जाती हैं दूर
और जो बच जाते हैं
कहीं इर्द - गिर्द
उन पर अपनों के ही
चलने से होती है
आवाज़ चरमराहट की
उस आवाज़ के साथ ही
टूट जाती हैं सारी उम्मीदें
और ख़त्म हो जाती हैं
सूखी हुई ख्वाहिशे .

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Comment

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Comment by sangeeta swarup on June 26, 2011 at 3:26pm

वंदना जी और सौरभ जी , 

आपकी हौसलाफजाई के लिए आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2011 at 2:04pm

विशेष परिस्थिति और विशेष मनोदशा में उपजे विशेष भावों को उकेरती रचना. बेहतर प्रस्तुति.

शुक्रिया..


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 24, 2011 at 10:36am
स्वागत है आपका !
Comment by sangeeta swarup on June 24, 2011 at 10:23am

गणेश जी ,

बहुत बहुत शुक्रिया.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 24, 2011 at 9:10am

उन पर अपनों के ही
चलने से होती है
आवाज़ चरमराहट की.......

 

वाह वाह बहुत ही खुबसूरत रचना है संगीता स्वरुप जी , भावनात्मक शैली में लिखी गई बहुत ही विचारणीय अभिव्यक्ति , इस शानदार प्रस्तुति हेतु बधाई आपको !

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