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ग़ज़ल।--हो गई बात कुछ इशारों से ।

2122 1212 22
फूल ढूढे गए किताबों से ।
हो गयी बात कुछ इशारों से ।।

कुछ गलत फहमियां हुई होंगी ।।
उस से मिलता कहाँ मै वर्षों से ।।

फेसबुक से उसे भी नफरत है ।
डर उसे है अनाम रिश्तों से ।।

कुछ तो है वो खफा ख़फ़ा शायद ।
लग गया बेलगाम बातों से ।।

आशिकी का नशा हुआ महंगा ।
रिन्द घटने लगे हैं खर्चों से ।।

बाद मुद्दत के जब मिले उस से ।
दर्द छलका तमाम आंखों से ।।

हो यकीनन जफ़ा के काबिल तुम ।।
शर्म तुमको नहीं गुनाहों से ।।

जुर्म करिये मगर ये याद रखो ।
माफ़ होता नहीं दुआओं से ।।

कुछ इजाफा है अब शरारत में ।
कुछ हिमाकत हुई निगाहों से ।।

बात मरने की मत करो यारों ।
जिंदगी है यहां उमीदों से ।।

क्या भरोसा करूँ शराफत पर
चोट खाते हैं रहनुमाओं से ।

है इरादा तेरा नही वाजिब ।
साजिशें मत करो हवाओं से ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Ravi Shukla on May 3, 2017 at 11:31am

आदरणीय नवीन जी गजल अच्‍छी हुई है बधाई स्‍वीकार करें

 मतले से ही गजल ने अलग दिशा ले ली है  फूल ढूंढे गये किताबो में  किताबो से कैसे ढूढे जा सकते है  ढूढना क्रिया किसी जगह किसी पात्र किसी आयाम के अंदर ही होगी हमारा आशय यहा से शब्‍द के प्रयोग से है जिसे आपने रदीफ लिया है ।

6 ठे शेर में तकाबुले रदीफ है हालांकि इस शेर का भाव बहुत अच्‍छा है बधाई

5 वें शेर में अाशिकी का संबंध इश्‍क से होगा न कि मयनोशी से आने रिंदो के खर्चे की बात कही है

8 वें शेर में  आप उला में जुर्म की हिमायत करते से लग रहे है जब कि सकारात्‍मक सोच तो ये है कि जुर्म से बचिये

कोइ 5 से 6 शेर छांट कर एक बार और कहन को चुस्‍त करे तो एक अच्‍छी गजल निकल सकती है । सादर

Comment by Naveen Mani Tripathi on May 1, 2017 at 1:33pm
शुक्रिया आ0 मुहम्मद आरिफ साहब ।
Comment by Mohammed Arif on May 1, 2017 at 1:29pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ ढेरों मुबारकबाद । बाक़ी गुणीजन अपनी अमूल्य राय देंगे ।

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