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कोई प्रेम-कथा उतरी है (ग़ज़ल) - मिथिलेश वामनकर

2122 – 1122 – 1122  - 22

 

केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है  

या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है

 

इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में

जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है

 

ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम

जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है

 

मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे   

तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है

 

पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा

तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है

 

पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे

इसलिए विष से भरी प्रेम-सुधा उतरी है

        

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है

 

आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन

घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है

 

घर प्रकाशित करो दीपक से, ये आशा छोड़ो

चाँदनी यूं कभी अम्बर से भला उतरी है

 

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं 

फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’  सुता उतरी है

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by Mahendra Kumar on December 26, 2016 at 8:10pm
आदरणीय मिथिलेश सर, क्या ग़ज़ल लिखी है आपने... एकदम ताज़गी से भरी हुई। वाह! किसी एक शेर की क्या बात की जाए सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं। इसलिए सभी शेरों के लिए दाद हाज़िर है। इस ख़ूबसूरत और उम्दा ग़ज़ल के लिए आपको दिल से ढेरों बधाई। सादर।

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