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पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर  से जिसके  

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा  

सिसकते आईने के  वो बता टुकड़े  कहाँ रक्खूँ

 

हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा  इतना बता जाना  

 ख़जाँ  की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ

 

तेरे लिक्खे हुए जो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं  

खतों के वो  तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ

---------------------

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on August 22, 2016 at 3:57pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत ही उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पांचवें शैर में "किरचे"चूंकि बहुवचन है इसलिये 'की'की जगह "के"करना मुनासिब होगा,वैसे 'किरच'का बहुवचन "किरचें"सही है मगर "किरचे"भी चल सकता है ।
आख़री शैर में 'ख़त'का बहुवचन "खतूत" होता है,
"खतूतों" नहीं देख लीजियेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2016 at 9:51am

आह्ह्ह्ह मजा  गया मिथिलेश भैया सर्वप्रथम वो भी इतनी विस्तृत शेर दर शेर समीक्षा पढके | ऐसी  प्रतिक्रिया से कौन रचनाकार उत्साहित ऊर्जित न होगा |तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2016 at 10:16pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं-

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ................. वाह वाह वाह शानदार मतला 

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर से जिसके 

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  ............. इस शेर को ऐसे गुनगुनाना मुझे अधिक अच्छा लगा.

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ............... क्या खूब शेर हुआ है दीदी.... दाद ही दाद 

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ........................ कमाल 

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा  

सिसकते आईने की वो बता किरचे कहाँ रक्खूँ.....................अद्भुत 

 

हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा  इतना बता जाना  

 ख़जाँ  की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ....................... क्या ही खूब कहा है दीदी.... हासिल-ए-ग़ज़ल

 

तेरे लिक्खे हुए जो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं  

खुतूतों के तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ.......................... वाह वाह वाह 

दीदी बहुत दिनों बाद मंच पर सक्रीय हुआ हूँ और इस दिलजीतू ग़ज़ल को गुनगुनाने के आनंद से मुग्ध हूँ. बहुत बहुत बधाई. और आभार इस शानदार ग़ज़ल का पाठक बनाने के लिए. नमन 

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