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ख़बर सबकी है ख़ुद से बेख़बर हैं
ख़ुदा जाने के हम कैसे बशर हैं।

असर कलयुग का कुछ ऐसा हुआ है
फकीरों की दुआएं बेअसर हैं।

परिंदे ढूंढते हैं आशियाना
के शहरों में बचे कुछ ही शजर हैं।

हैं आलीशान ज़ाहिर में सभी कुछ
मगर टूटे हुए अंदर से घर हैं।

मिटी इंसानियत आदम बचा है
हज़ारों हो गये ऐसे नगर हैं।

जो दें किरदार की खुशबू सभी को
बहुत कम रह गये ऐसे,मगर हैं।

अंधेरों ने किये दर बंद सारे
उजाले फिर रहे अब दर ब दर हैं।

-----मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2015 at 4:15pm

बढ़िया ग़ज़ल है, हार्दिक बधाई 

Comment by rajinder toki on December 8, 2015 at 8:20am
आपकी बात से सहमत हूं।इस शे'र को ठीक करुंगा।पर जल्दी में नहीं कहा था।फर भी आपका आभारी हूं।
Comment by Samar kabeer on December 7, 2015 at 10:35pm
जनाब राजिंदर जी ,आदाब,ग़ज़ल वैसे ही आपकी बहुत शानदार है,हर शैर अपनी जगह चुस्त है लेकिन इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है :-

"मिटी इंसानियत आदम बचा है
हज़ारों हो गये ऐसे नगर हैं"

लगता है ये शैर आपने जल्द बाज़ी में कहा है,ग़ज़ल के बाक़ी अशआर के लिये ढेरों दाद क़ुबूल करें ।

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