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"श्रद्धा" - लघुकथा

"अमर! गाडी पंडितजी के घर के आगे लगाकर जरा उन्हे तनिक बाहर बुला लाओ।" सेठ जी ने अपने ड्राईवर को आज्ञा दी।......
कुछ ही क्षण बाद अमर के पीछे पंडितजी बाहर आते नजर आये। "सेठजी राधे राधे। मैं गीता पाठ कर रहा था आप के आने की बात सुन पाठ छोड़ चला आया, कहिये कैसे याद किया आपने?"
"राधे राधे पंडितजी।" सेठजी मुस्कराने लगे। "कुछ खास नही, आप के लिये कुछ वस्त्र लिये थे सोचा गुजरते हुये देता चलूँ।"
पंडितजी से 'आयुष्मान भव:' का आशिर्वाद पा सेठजी की गाडी आगे चल पड़ी। अमर 'बैक मिरर' में सेठजी को देखते हुये हैरान हो पूछने लगा। "सेठजी आप तो पंडितजी को सत्यनारायण की पूजा के लिये कहने वाले थे न!"
हाँ बेटा, लेकिन जिस व्याक्ति की अपनी पूजा में ही सम्पूर्ण श्रद्धा नजर नही आ रही उससे पूजा करवाना......।" कहते कहते सेठजी चुप हो गये।
'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by विनोद खनगवाल on July 28, 2015 at 4:55pm

आदरणीय वीर मेहता जी। आंखों देखी मक्खी नहीं खाई जाती है। इस कहावत को चित्रित करती बहुत बढिया लघुकथा बनी है। बधाई स्वीकार करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 28, 2015 at 1:06pm

आदरणीय वीरेंदर जी, बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. आपने लघुकथा के मर्म को जिस सधे ढंग से  शाब्दिक किया है वह प्रशंसनीय है. तीखा व्यंग्य बहुत ही सलीकेदार लहजे में हुआ है. बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर.

Comment by Prashant Priyadarshi on July 28, 2015 at 1:06pm

आदरणीय वीरेन्दर जी, बहुत सही बात कही है आपने अपनी लघुकथा में और शीर्षक भी एकदम सटीक दिया है आपने.

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