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आखिर क्यों मैं ऐसा हूँ ..... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

22--22--22--22--22--22--22--2

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हँसते - हँसते  रो  लेता  हूँ,   रोते - रोते  हँसता  हूँ

कोई मुझसे  ये मत पूछो आखिर क्यों  मैं  ऐसा हूँ

 

आईने-सी  शक्ल  बना कर  इक नुक्कड़ पर बैठा हूँ

कितने उजले,  कितने काले, चेहरे गिनते रहता हूँ

 

ऐसा होगा,  वैसा होगा,   आज  हुकूमत   बदलेगी

अपनी तो औकात  ज़रा-सी, सबकी बातें सुनता हूँ

 

दिल का मतला, दर्द काफिया, छोटी बह्र है जीवन की

सिर्फ अक़ीदत के लफ्जों से, सादी गज़लें लिखता हूँ

 

गम की दुनिया अपने भीतर, यारां ऐसे  कैद न कर

अपना गम  मुझको बतला दे, मैं  भी  तेरे  जैसा हूँ

 

सूरज, चाँद, सितारे, लोरी,  खेल-खिलौने  छूट  गए

फिर से ये सब मुझे दिलाओ  मैं  भी छोटा बच्चा हूँ

 

घर का ये आँगन लगता है जनम-जनम का प्यासा है

जब भी आता-जाता घर में, पाँव  भिगोकर चलता हूँ

 

दिल की बाते आज सितारों को बतला के चैन मिला

पलकों से बादल-सा उतरा,  खूब झमाझम बरसा हूँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by Sushil Sarna on February 10, 2015 at 4:13pm

घर का ये आँगन लगता है जनम-जनम का प्यासा है
जब भी आता-जाता घर में, पाँव भिगोकर चलता हूँ

दिल की बाते आज सितारों को बतला के चैन मिला
पलकों से बादल-सा उतरा, खूब झमाझम बरसा हूँ

काफ़िया,रुक्न,अरकान सब आप जाने मगर ग़ज़ल का हर अशआर हमें भा गया है .... इस दिलकश प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।

Comment by Samar kabeer on February 10, 2015 at 2:02pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,किसी भी बह्र में एक रुक्न की कमी की वजह से जो रुकावट मिसरा पढ़ने में होती है उसे अरूज़ की ज़बान में"सक्ता" कहते हैं,आप का मिसरा इस तरह पढ़ेंगे तो सही लगेगा "दिल का मतला,दर्द क़ाफ़िया,छोटी बह्र है जीवन की",इस बह्र के अरकान 7 फैलुन एक फ़ेअ,यह बह्र ग़ैर मारुफ़ होने की वजह से यह दिक़्क़त हुई वर्ना बाक़ी सब कुछ ठीक है |

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:22am
सही कह रहे है सर 7 फैलुन् एक फा के आधार पर ही लिखी है ग़ज़ल और ये छूट भी ली है

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 11:19am

दर असल ये बह्र मेरे खयाल से  , 22   22   22  22  22  22  22  2  के  रूप मे लिखा जाता है , इसमे  22 को 112 121 211  करने की छूट होती है , मेरे हिसाब से तो कोई गलती नहीं है , आगे आ. समर भाई जानें ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:07am
222X5

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:07am
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर धन्य हुआ। मार्गदर्शन के लिए आभार। वैसे बह्र का वज़्न 222X15 है लेकिन दर्द काफ़िया में वज़्न 21 212 हो गया है शायद आदरणीय समर कबीर जी उस ओर इशारा कर रहे है।

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:51am

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत सीधी, सरल ,लाजवाब गज़ल हुई है , हार्दिक बधाई ॥  सक्ता , मात्रा या हर्फ की कमी बेशी को ही कहते है शायद ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 10:31am
आदरणीय सर्वेश भाई जी बहुत बहुत धन्यवाद सराहना के लिए
Comment by सर्वेश कुमार मिश्र on February 10, 2015 at 3:36am

क्या बात है भाई साहब...आपको बधाई


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 1:03am

आदरणीया  डिम्पल गौर 'अनन्या' जी, रचना के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार.

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