For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गजल - कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!

1222 1222 1222 1222

मेरी कुछ भी न गलती थी मगर दुश्मन जमाना था!
जमाने को मुझे मुजरिम का यह चोला उढ़ाना था!!

मेरे हाथों में बन्दूकें कहाँ थी दोस्त मेरे तब!
मैं तो बच्चों का टीचर था मेरा मकसद पढ़ाना था!!

हजारों कोशिशे की बात मैनें टालने की पर!
कहाँ टलती? रकीबों को तो मेरा घर जलाना था!!

मेरा भी था कली सा एक नन्हा,फूल सा बेटा!
वही मेरा सहारा था वही मेरा खजाना था!!

उतर आये लिये हथियार घर में जब अधर्मी वें!
कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!!








मौलिक व अप्रकाशित!

Views: 1500

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 5:48pm

मुझे शूली चढ़ा दो तुम मुझे फाँसी लगा दो अब!
ये दिन जब से चला तब से पता है आज आना था!!--कोई मतलब नहीं निकल रहा है 

Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 5:47pm

मुझे उस पर भरोसा था वो ऐसी हो नहीं सकती!
मगर उस बेवफा को भी जमाने को हँसाना था!!-- tukbandi hai

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 4:02pm
आदरणीय khursheed khairadi जी अगर आप ऐब वाले शे'रो को इंगित कर देते तो मुझे सुधारने मे समझ हती
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 3:54pm
आदरणीय khursheed khairadi जी मैं समय मिलते ही इसे सुधारने का प्रयत्न करूंगा! बहुत जल्दबाजी में लिख कर पोस्ट कर दी थी माफी चाहता हुँ अभी गजल को समय की जरूरत थी ! आदरणीय मुझे उरूज,जरब,आदि की तनिक भी नाॉलिज नहीं ! क्रपया अगर आप मेरी मदद करों तो बडी मेहरबानी होगी! नमन!
Comment by khursheed khairadi on December 29, 2014 at 3:34pm

आदरणीय राहुल डांगी साहब ,काफ़ी सारे भाव समेटे हुये काफ़ी तवील ग़ज़ल है |बहुत बहुत बधाई आपको |लंबी बह्र और लंबी ग़ज़ल होने से कहीं कहीं भावों का कसाव बिखर रहा है |सदर और इब्तिदा में बार बार कि का प्रयोग अखरता है |अरूज़ो-ज़रब में में आगे एक हर्फ़ बढ़ाया जा सकता है लेकिन हश्वैन में खटकता है ,लय  बाधित होती है|देखें '  मेरा तो काम पढ़ाना था!!     थे और मैं एक था पांडव|

      वैसे हर शेर हज़ार रंग बिखेरता हुआ है |ग़ज़ल बहुत पसंद आई |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 2:15pm
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी बहुत बहुत धन्यवाद! आपके सुझाव पर ध्यान देता हुँ!सादर नमन!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 29, 2014 at 2:04pm

मतला में यदि उला को सानी और सानी को उला कर दिया जाय तो कहन और निखर कर आएगा, 

//मैनें तो लाख कोशिश की थी सब कुछ टाल देने की ने की दोस्त!//

//जिसे मेरा सहारा था उसे जिसे मुझको बचाना था!!//

//दुशासन थे शकूनी थे, थे दुर्योधन मेरे दुश्मन!//
बार बार थे , मिसरा को कमजोर कर रहा है, इसको देखिये जरा .
कुल मिलाकर यह कहना है कि हर शेर को तनिक कसने की जरुरत है, इस प्रयास पर बहुत बहुत बधाई .

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 11:30am
आदरणीय श्याम नारायन जी शुक्रिया!
Comment by Shyam Narain Verma on December 29, 2014 at 10:30am

" बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । "

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221 2121 1221 212 बर्बाद ज़िंदगी का मज़ा हमसे पूछिए दुश्मन से दोस्ती का मज़ा हमसे पूछिए १ पाते…"
24 minutes ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेंद्र जी, ग़ज़ल की बधाई स्वीकार कीजिए"
1 hour ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"खुशबू सी उसकी लाई हवा याद आ गया, बन के वो शख़्स बाद-ए-सबा याद आ गया। वो शोख़ सी निगाहें औ'…"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
3 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
10 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
11 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
21 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
Thursday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service