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गजल -  वही साखी पुरानी है...

1222, 1222, 1222, 1222

वही काठी, वही जज्बा, वही लाठी पुरानी है।
हसीं बुत मिल गया जिसमें वही मिट्टी पुरानी है।

अॅंधेरों को मिटाकर रोशनी के साथ जलता जो,
वही सूरज, वही चन्दा, वही भट्टी पुरानी है।

जगा कर देश को जिसने बढाया मान-मर्यादा,
वही पत्रक, वही पोथी, वही रद्दी पुरानी है।

दिला कर मंजिले पर्वत शिखर का कद किया बौना,
वही धागा कलाई का वही रस्सी पुरानी है।

जला कर दीप नयनों के दिलों को जोडते रब से
खुदा-श्रीराम-ईसा की वही बस्ती पुरानी है।

मिटा कर भेद-भावों को पिरोया प्यार मानव में,
कबीरा-सूर-तुलसी की वही साखी पुरानी है।

के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 3, 2014 at 9:37pm

मिटा कर भेद-भावों को पिरोया प्यार मानव में,
कबीरा-सूर-तुलसी की वही साखी पुरानी है।

हर पंक्ति कहती बात फिर भी कुछ अलग सी ही
भले ही कहने की शैली वैसी ही पुरानी है.
धृष्ठता के लिए क्षमा चाहूँगा, पर मैं अपने को रोक नहीं सका!

Comment by ram shiromani pathak on August 3, 2014 at 8:07pm

सुन्दर विचार है आपके  आदरणीय। ।   हार्दिक बधाई आपको। ।   सादर 

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