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गज़ल : झूठ से इसको नफरत सी है

गज़ल : झूठ से इसको नफरत सी है

झूठ से इसको नफरत सी है सच्चाई को प्यार कहे ,

मेरा दिल तो जब भी बोले दो और दो को चार कहे |

 

मर खप कर  एक बाप जुटाता बेटी का दहेज ,

लेने वाले की बेशर्मी वो इसको उपहार कहे |

 

भ्रष्टाचार घोटालों के पहियों पर रेंग रही ,

लानत है उस शख्स पे जो इसको सरकार कहे |

 

जैसी करनी वैसी भरनी अब नहीं दीखता है ,

हम कैसे इस बात को माने कहने को संसार कहे |

 

मूंगे मोती मेवे से चाहे  भर दो जितना ,

 सागर से आयी हर मछली जार को जार  कहे |

 

हमें आईना दिखलाते हैं गिनती के अशआर ,

यूं तो बीते एक दशक में हमने शेर हज़ार कहे |

 

 मोबाईल इंटरनेट के युग में सब बदल गया ,

नहीं रहा वो दौर डाकिया आया तार कहे |


{ये गज़ल आज - कल ( २४-२५ फरवरी २०११ को ) तरही -०८ के लिये लिखी थी , पर लगा गज़ल के व्याकरण के हिसाब से वहाँ के लिये उपयुक्त नहीं अतः यहाँ दे रहा हूँ }

 

 

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on February 27, 2011 at 9:28pm
shukriya vivek jee !! वैसे मैंने कभी गज़ल के व्याकरण को गंभीरता से नही लिया सिर्फ लिखना अपना धर्म समझता हूँ | लेकिन यहाँ इस बात की बहुत चर्चा देखी तो मेरी भी इच्छा हुई कि जानने की कोशिश करूँ | कई बड़े रचनाकारों ने मुझे रुक्न ,बहर ,गिनती , मात्र से बचने की भी सलाह दि | फिर भी देखिये ........
Comment by विवेक मिश्र on February 27, 2011 at 9:10pm

अरुण जी,

मुझे भी ग़ज़ल में बहर आदि का ज्ञान नहीं. आपके साथ मैंने भी आदरणीय तिलक राज जी की पाठशाला में एडमिशन ले लिया है. बाकी, मेरे हिसाब से तो किसी भी काव्य रचना के लिए (चाहे ग़ज़ल हो या कोई कविता), 'मज़बूत ख़याल' पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और आपकी रचनाओं में यह हमेशा मिलता है. यूँ ही लिखते रहें हमेशा.

Comment by Abhinav Arun on February 27, 2011 at 8:11pm

एक शेर और जो इसे सात शेरो वाली ग़ज़ल बना देगा -

हमें आईना दिखलाते हैं गिनती के अशआर ,

यूं तो बीते एक दशक में हमने शेर हज़ार कहे |

 

Comment by Abhinav Arun on February 26, 2011 at 1:12pm

आदरणीय वंदना  जी मेरा उत्साह बढाने का शुक्रिया !! श्री बागी जी मुझे भी कुछ शेर इसके पसंद आये मगर खुद को ही लगा कहीं कोई कमी सी है सो वहाँ देना उचित नहीं लगा !!! आप सब का स्नेह बना रहे , कलम चलती रहे यही काफी है |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 26, 2011 at 10:34am
अरुण भाई बढ़िया ग़ज़ल बन पड़ी है आपको मुशायरा में पढनी चाहिये थी , बहर में नहीं है तो क्या, धीरे धीरे हम सभी सिख ही तो रहे है |

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