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गाँव , मसान एवं गुडगाँव

गाँव की फिजाओं में
अब नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और ऊँचे मचान .
उल्लास हीन गलियां
सूना दृश्य
मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती  गांवों में
ढोलक की थाप पर
चैता की तान
गाँव में नहीं रहते अब
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा गए सूरत, दिल्ली और
गुडगांव
पीछे हैं पड़े
बच्चे , स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता.
देखतें हैं, गिर ना जाये
खाने में छिपकली.
गाँव वाले कहते हैं,
स्साला मास्टर चोर है.
खाता है बच्चों का अनाज
साहब से साला बने मास्टर जी
सोचते हैं,
किस किस को दूँ अब खर्चे का हिसाब.
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज ..
इन स्कूलों में पढ़कर,
नहीं बनेगा कोई डॉक्टर और इंजीनियर
बच्चे बड़े होकर बनेगें मजदूर
जायेंगे कमाने
सूरत, दिल्ली , गुडगाँव
या तलाशेंगे कोई और नया ठाँव.

...... नीरज कुमार नीर

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2014 at 11:29am

//एडमिन को अनावश्यक मेरे कारण परेशानी ना हो , इसी कारण से यहाँ एडिट नहीं कर पाया //

तो फिर ऐडमिन की अवधारणा का क्या अर्थ है ? आपका क्या मानना है, भाईजी ?

यदि सीखने-सिखाने और तदनुरूप सुधरने-सुधारने का माहौल इस मंच पर बाकी रह ही न जाय तो फिर हम सभी रचनाकार-पाठक कर क्या रहे हैं यहाँ ?

विश्वास है, आप मेरे कहे को मेरे कहे के अनुसार लेंगे, भाई. हम प्रयास करें कि माहौल वही तारी रहे जिसके लिए इस मंच का दर्शन और उद्येश्य प्रभावी है.

Comment by Neeraj Neer on May 1, 2014 at 8:28am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपका हार्दिक आभार. जहाँ तक डॉ प्राची सिंह साहिबा द्वारा सुझाये व्याकरण सम्बन्धी सुधार  का प्रश्न है, ऐसा कैसे हो सकता है, मैं आप विद्वजनोंन के सुझावों पर अमल ना करूँ ... ऐसा सोचना उचित नहीं है. मैंने अपने रिकार्ड्स में , अपने ब्लॉग पर इसे सुधार लिया है.. OBO पर एडिट करने का आप्शन नहीं है ... एडिट करने पर यह पुनः अनुमोदन हेतू चला जाता है . एडमिन को अनावश्यक मेरे कारण परेशानी ना हो , इसी कारण से यहाँ एडिट नहीं कर पाया .. आपका पुनः आभार .... मैं अभी एडिट कर रहा हूँ .. :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2014 at 1:01am

जब कविता के वैचारिक पक्ष पर ध्यान धरता हूँ तो इस कविता को संग्रहणीय और उदाहरण मानता हूँ. यही इस कविता का शिल्प भी है.  ये मेरे विचार मात्र हैं.

हाँ, सुझाव के अनुसार व्याकरण सम्बन्धी भूल को आपने अबतक सुधारा नहीं है. फिर क्या आवश्यकता बनती है किसी सुझाव आदि की. इस पर सोचियेगा. अन्यथा आगे से सब तुक-बेतुक की बड़ाई कर चुप रह जायेंगे.

शुभ-शुभ

Comment by Neeraj Neer on April 11, 2014 at 8:40am

आदरणीया डॉ प्राची सिंह साहिबा आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ .... आपको कविता अच्छी लगी आभार.. मैं गूंजता को गूंजती कर लूँगा .. आपका स्नेह और मार्गदर्शन सर्वदा अपेक्षित है.. स्नेह बनायें रखें ..

Comment by Neeraj Neer on April 11, 2014 at 8:36am

आपका हार्दिक आभार आ. विशाल चर्चित साहब ..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 11, 2014 at 7:42am

सरकारी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन और गाँव के बदलते स्वरुप पर बहुत सार्थक प्रस्तुति आ० नीरज जी..

बहुत बहुत बधाई 

नहीं गूंजते गांवों में....................मुझे लगता है यहाँ गूंजता  के स्थान पर गूँजती  होना चाहिए, देख लीजियेगा ! 
ढोलक की थाप पर
चैता की तान

मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता. 
देखतें हैं, गिर ना जाये 
खाने में छिपकली.......................इन पंक्तियों में कुछ कुछ सपाटबयानी सी महसूस हुई.... सिर्फ,पूरी कविता के प्रवाह के जैसा प्रवाह नहीं लगा यहाँ..

कथ्य को तथ्यात्मकता से प्रस्तुत किया है, मास्टर साहब का साहब से सा... हो जाना और इस परिवर्तन के पीछे की विवशता को भी सुन्दर शब्द मिले हैं 

बहुत बहुत बधाई इस सार्थक प्रस्तुति पर 

शुभकामनाएं 

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on April 9, 2014 at 11:30pm

आज के गावॉ के हालात पर विचारणीय दृश्य प्रस्तुत करती एक सराहनीय रचना !!!

Comment by Neeraj Neer on April 9, 2014 at 7:11pm

हार्दिक आभार आदरणीय विजय मिश्र जी .. रचना के कथ्य से सहमती जताने एवं रचना पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ..

Comment by Neeraj Neer on April 9, 2014 at 7:10pm

आपका आभार गीतिका वेदिका जी ..

Comment by विजय मिश्र on April 9, 2014 at 3:51pm
नीरजजी , सच में गाँव अपनी धूरी से भटक गया है , सारे के सारे शुष्क जीवन जीने को बाध्य हैं |जवान क्या अब तो बच्चे भी नहीं दिखते |माएं बाहर जानेवालों से आग्रह करतीं फिरती हैं कि इस दफा अब मेरे बेटे को भी ले जाओ ,कमसेकम अपना पेट तो भरेगा |बहुत सजीव चित्रण है |आभार |

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