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उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है

 

उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है 

(मधु गीति सं. १४७९, दि. २५ अक्टूवर, २०१०) 


उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है, स्वरों के इस समागम में व्यंजना है; 

छंद का आनन्द उद्गम स्रोत सा है, लय विलय का सुर तरे भव भंगिमा है. 

 

अखिलता की वृष्टि सृष्टि सुर सुधाती, जटिलता की दृष्टि दुर्लभ गति पाती; 

जन्म से भी अंध सहसा दृष्टि पाते, बहा सुर मन्दाकिनी हैं जगत तरते.

फूट उठता झरना आज्ञा चक्र से है, चक्र होते फुरित लय सुर तान में हैं; 

नाड़ियाँ औ ग्रंथि पाते मधुर गति हैं, अवयवों से आभा उभरे मनोरम है. 

 

जागता स्पन्द अभिनव अंजुमन में, वन विहग मृग वृन्द के छन्दित हृदय में; 

भूल जाते वैर स्पर्धा विजन में, प्रेम सेवा कर सुयोगी होते जग में. 

मन में मानव देख कर यह सोचता है, क्यों न प्रकृति लय लिये वह नाचता है; 

विश्व के नायक से नाता जोड़ता है, 'मधु' से वह सुर मिलाकर बोलता है.

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 2, 2011 at 7:21pm

छंद का आनन्द उद्गम स्रोत सा है, लय विलय का सुर तरे भव भंगिमा है.  

 

बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति है, काव्य शैली रुचिकर है, बधाई आपको |

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