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इस नदिया की धारा में

कितने टापू हैं उभरे

कहीं हुई उथली-छिछली 

तो कहीं भँवर हैं गहरे

 

पंख नदारद मोरों के 

तितली का है रंग उड़ा

भौंरा भी अब ये सोचे

आखिर कैसे फूल झड़ा

 

चिड़ियों की गुनगुन गायब

यहाँ नहीं अब पग ठहरे

 

कल-कल करती जलधारा

अब सहमी औ ठिठकी सी

सिकुड़ी-सिमटी देह लिए

नदिया चलती, बचती सी

 

इक मरीचिका सी छलने

बीज मरू के हैं अँकुरे

 

काली सी बदरी छाई

नील गगन भी स्याह हुआ

कोयल, पपिहा आस लिए

अब तो फूटे फिर अँखुआ

 

सीप खड़ी तट पर सोचे

कब कोई इक बूँद झरे

 

          - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on November 9, 2013 at 11:32pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 9, 2013 at 11:31pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 9, 2013 at 11:31pm

आदरणीय Atendra Kumar Singh "Ravi" जी आपका हार्दिक आभार!

//अगर देखा जाय तो सीप की ऐसी ही दशा होती है बराबर वो आस में ही होती है ....खैर// ....................आदरणीय मैंने इस बिम्ब को लेकर कोई गलती की है क्या?

Comment by बृजेश नीरज on November 9, 2013 at 11:27pm

आदरणीय गोपाल जी रचना पर आपकी उपस्थिति हेतु आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 8, 2013 at 7:12pm

आदरणीय बृजेश जी,

गीत की मात्रिकता और शब्द समुच्चय निर्वहन 'सम के साथ सम व विषम के साथ विषम शब्दों के परिपालन' से शिल्प बहुत सुगठित हुआ है जिस पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय

नदिया का ठिठकना सिकुड़ना और प्रकृति के सौन्दर्य की क्षति नें सुन्दर अभिव्यक्ति पाई है..

हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2013 at 11:03pm

एक सफल और समृद्ध गीत के लिए हार्दिक बधाई, बृजेशजी.

शुभ-शुभ

Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on November 7, 2013 at 8:39pm

काली सी बदरी छाई

नील गगन भी स्याह हुआ

कोयल, पपिहा आस लिए

अब तो फूटे फिर अँखुआ

 

सीप खड़ी तट पर सोचे

कब कोई इक बूँद झरे

आदरणीय बृजेश जी अगर देखा जाय तो सीप की ऐसी ही दशा होती है बराबर वो आस में ही होती है ....खैर उत्तम गीत के लिए हार्दिक बधाई

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 7, 2013 at 4:15pm

KAHIN HUYEE UTHALI CHICHLI TO KAHIN BHNWAR HAIN GAhRE

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 7:34pm

आदरणीय अखिलेश जी आपका हार्दिक आभार! ये गीत जीवन के खोखलेपन और सामाजिक विसंगतियों को ध्यान में रखकर लिखने का प्रयास किया था. हाँ बिम्ब जरूर नदी से लिए थे.

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 7:33pm

आदरणीय सचिन देव जी, आपका हार्दिक आभार!

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