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सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ

1212 1122 1212 22

 

सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ

ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ

 

ये ज़ोर शम्अ का है जो बुझी नही शब भर

गया करीब से तूफान बदगुमाँ सा कुछ

 

न जाने कौन खिरामां सफ़र में था मेरे

तमाम राह चला साथ कारवाँ सा कुछ

 

चिराग सा कभी, आतिशबजाँ लगे है गाह

वो टिमटिमाता अँधेरों में इक मकाँ सा कुछ

 

ये बदलियाँ जो हटीं चाँद भी खिला तनहा

इक अर्से बाद नज़र आया शादमाँ सा कुछ

 

निहाँ =छिपा हुआ, खिरामां =गतिमान, आतिशबजाँ =जिसके अंदर आग हो, शादमाँ =हर्षित

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on November 6, 2013 at 6:52pm

आदरणीय बृजेशजी, भाई सचिन जी आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on November 6, 2013 at 6:51pm

भाई रामशिरोमणि जी, अरुणजी  हौसला अफ्ज़ाई के लिये आपका तहे-दिल से शुक्रिया

Comment by Sachin Dev on November 6, 2013 at 6:39pm

बहुत ही खूबसूरत गजल पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय 

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 5:36pm

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने! वाह! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 6, 2013 at 1:22pm

आदरणीय शिज्जू जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर पसंद आये, मतले में मुझे थोड़ी उलझन महसूस हुई.

सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ

ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ ( उठे है के साथ धुआँ-धुआँ अटपटा सा लग रहा है मेरे हिसाब से उठे की जगह उठा होना चाहिए)

इस सुन्दर ग़ज़ल हेतु दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by ram shiromani pathak on November 6, 2013 at 9:53am

सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ

ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ

 

ये ज़ोर शम्अ का है जो बुझी नही शब भर

गया करीब से तूफान बदगुमाँ सा कुछ

 

बहुत सुन्दर ग़ज़ल वाह ,,,,,,,बहुत  बहुत बधाई  आदरणीय भाई  सिज्जू   जी। ।सादर  

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