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पाँव मेरे वहीं पर ठिठक से गए

जिस जगह तुम गए थे मुझे छोड़कर

मैं वहीं पर खड़ा ये ही देखा किया

कैसे जाता है कोई मुँह मोड़कर

 

कितने वादे किए थे तुमने मगर

इन कलियों को खिलना कहाँ था लिखा

इन शाखों पर चिड़िया चहकती नहीं

कब पेड़ों से पतझड़ हुआ था विदा

अब बहारें उधर से गुजरती नहीं

जो राहें तुम तन्हा गए छोड़कर

 

अश्क तो आँख से अब छलकते नहीं

सब घटा बन तुम्हारी तरफ हैं गए

चाँदनी मेरी छत पर ठहरती नहीं

ख्वाब भी छोड़ मुझको चले हैं गए

इन साँसों को अब भी प्रतीक्षा तेरी

कैसे रखूँ मैं इनको संग जोड़कर

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:53pm

आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by annapurna bajpai on September 4, 2013 at 10:31pm

आदरणीय बृजेश जी आपकी रचनाएँ स्वयम ही सब कुछ कह जाती है , पढ़ने वाला बस निशब्द ही रह जाता है । सुंदर भाव । बधाई स्वीकारें । 

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 4, 2013 at 10:19pm

भावों से भरा है,

रचना खरा है ।

हार्दिक बधाई आदरणीय नीरजजी

Comment by Ashish Srivastava on September 4, 2013 at 9:19pm

भाव विभ्रोर रचना 

Comment by ram shiromani pathak on September 4, 2013 at 8:50pm

अश्क तो आँख से अब छलकते नहीं

सब घटा बन तुम्हारी तरफ हैं गए

चाँदनी मेरी छत पर ठहरती नहीं

ख्वाब भी छोड़ मुझको चले हैं गए

इन साँसों को अब भी प्रतीक्षा तेरी

कैसे रखूँ मैं इनको संग जोड़कर////

बहुत ही सुन्दर भावों से सजी एक बहुत ही सुन्दर  रचना हार्दिक बधाई आपको आदरणीय भाई ब्रिजेश  जी //सादर

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