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वज्न 2122 2122 2122 212

बह्र ए रमल मुसम्मन महज़ूफ

 

लमहा-लमहा याद कोई दिल को आने क्यूँ लगे

रफ़्ता-रफ़्ता वर्क़े-माज़ी वो हटाने क्यूँ लगे       

 

इस मरासिम लफ़्ज़ से ही आजिज़ी होने लगी    

फ़ासिले हम को रिफ़ाकत में रुलाने क्यूँ लगे       

 

बेगुमाँ भाग आए थे जिनसे निगाहें हम बचा     

ढूँढ कर वो बेतलब ग़म फ़िर सताने क्यूँ लगे     

 

मुद्दतों से यूँ दबा जिसको रखा था दर्द वो

नज़्म करने में हमें इतने ज़माने क्यूँ लगे

 

ग़मगुसारों से हम अपनी दास्तां कैसे कहें  

दिल शिकस्ता आपको ऐसे दिखाने क्यूँ लगे

 

मिलने का वादा किया हो याद पड़ता ही नही

बेसबब वो रास्ते हम को बुलाने क्यूँ लगे     

 

तीरगी ही जब मुकद्दर बन गई, ऐ ज़िन्दगी!

ये उजाले तेरे जल्वों के जलाने क्यूँ लगे

 

वर्क़े- माज़ी= अतीत के पन्ने.  मरासिम= रिश्ते, मेलजोल. आजिज़ी= उकताहट.  रिफ़ाकत= दोस्ती. बेगुमाँ= सहसा

बेतलब= बिन बुलाए. दिल शिकस्ता= टूटा.  दिल तीरगी= अंधेरा

 

 

- मौलिक अप्रकाशित(संशोधित )

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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 7, 2013 at 11:50am

आदरणीय बसंत जी आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on August 7, 2013 at 11:49am

आदरणीया विनीता जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by बसंत नेमा on August 7, 2013 at 10:44am

बहतु सुन्दर . लफ्जो की जादुगरी और सुन्दर भाव ....बधाई 

Comment by Vinita Shukla on August 7, 2013 at 9:17am

बहुत सुंदर...खूबसूरत अल्फाजों और ज़ज्बातों से सजी गजल. सर्वश्रेष्ठ रचना के सम्मान हेतु बधाई.

Comment by seema agrawal on August 7, 2013 at 12:19am

मुद्दतों से यूँ दबा जिसको रखा था दर्द वो

नज़्म करने में हमें इतने ज़माने क्यूँ लगे

ग़मगुसारों से हम अपनी दास्तां कैसे कहें  

दिल शिकस्ता आपको ऐसे दिखाने क्यूँ लगे

तीरगी ही जब मुकद्दर बन गई, ऐ ज़िन्दगी!

ये उजाले तेरे जल्वों के जलाने क्यूँ लगे....बहुत बढ़िया शेर कहे हैं आपने दिल से  बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 11, 2013 at 2:10pm

आपका बहुत बहुत धन्यवाद वीनस जी, आपकी हौसिला अफज़ाई सर से पाँव तक ऊर्जा से भर देती है,  आपकी तरफ से तारीफ के अल्फ़ाज़ किसी अवॉर्ड से कम नही है.

Comment by वीनस केसरी on July 11, 2013 at 2:04am

वाह वाह शानदार
क्या खूब अशआर हुए हैं रवां भी दवां भी ...

दाद कबूल फरमाएँ ...

मुद्दतों से यूँ दबा जिसको रखा था दर्द वो

नज़्म करने में हमें इतने ज़माने क्यूँ लगे

ग़मगुसारों से हम अपनी दास्तां कैसे कहें  

दिल शिकस्ता आपको ऐसे दिखाने क्यूँ लगे

 

वाह वा बहुत खूब जनाब


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 6, 2013 at 2:53pm

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद वेदिका जी, मैं अभी ग़ज़ल की कक्षा का विद्यार्थी हूँ, सीख रहा हूँ.  आप जैसे प्रशंसक हो तो सीखने की गति बढ़ जाती है.

//और धन्यवाद की आपने उन कठिन शब्दों के अर्थ दिए, जिससे हम जैसे कम ज्ञान वालो की समझ में पूरी गजल जाती है. यह प्रयास, प्रस्तुति को सम्पूर्ण बनाता है!//

इस बात के लिये धन्यवाद मै आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी को दूँगा क्योंकि ये मैंने उन्हीं के सलाह से किया है. 

Comment by वेदिका on July 5, 2013 at 8:54pm

मिलने का वादा किया हो याद पड़ता ही नही

बेसबब वो रास्ते हम को बुलाने क्यूँ लगे,,, जैसी के ही दिल से   आई कोई आवाज़    

 . 

बहुत खूब सूरत गजल पे बधाई आदरनीय शिज्जू जी!! 

और धन्यवाद की आपने उन कठिन शब्दों के अर्थ दिए, जिससे हम जैसे कम ज्ञान वालो की समझ में पूरी गजल आ जाती है. यह प्रयास, प्रस्तुति को सम्पूर्ण बनाता है!

बहुत बहुत बधाई!!      


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 5, 2013 at 8:47pm

आपका बहुत बहुत शुक्रिया जितेंद्र जी , आपने जो हौसला अफज़ाई की है वो और अच्छा करने को प्रेरित करेगा

कृपया ध्यान दे...

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