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कुम्हार सो गया

थक गया होगा शायद

 

मिट़टी रौंदी जा रही है

रंग बदल गया

स्याह पड़ गयी

 

चाक घूम रहा है

समय चक्र की तरह

लगातार तेजी से

उस पर जमी

मिट्टी तेज धूप में

सूख गयी

उधड़ रही है

पपड़ियों के रूप में

 

पछुआ हवाओं के साथ

उड़कर आयी

रेत और किनकियां

चारों तरफ बिखरी हैं

रौशनी में चमकती हुई

उड़कर आंख में पड़ जाती है

जब तब

चुभती हैं

 

चारों तरफ बिखरे बर्तन

धीरे धीरे समय बीतने के साथ

टूटते जा रहे हैं

कच्चे और अधपके बर्तन

टूटकर मिट्टी में मिल गये

रेत और किनकियों के साथ

 

ठंडी पड़ती जा रही

भट्टी की आंच

 

अब बर्तन नहीं बचे

घर में

पानी पीने को भी

 

कुम्हार!

क्या जागोगे तुम?

 

जागो

इस आंच को तेज करो

उठाओ डंडी

घुमाओ यह चाक

इस रेत और किनकियों से इतर

तलाशो साफ मिट्टी

चढ़ा दो चाक पर

बना दो नए बर्तन

हर घर के लिए

 

ये सोने का समय नहीं।

         - बृजेश नीरज

 ओ बी ओ की वर्षगांठ पर सभी को मेरी शुभकामनाएं!

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 7:26pm

आदरणीय लक्ष्मण जी आपका आभार! आप लोगों की व्याख्या ने इस रचना को अच्छा बना दिया।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 2, 2013 at 7:19pm

कुम्हार के कर्म के माद्यम से सोते हुए को जागाने, गति चक्र को निरंतर गति मान रखने का अच्छा सन्देश दिया है 

आपने श्री ब्रिजेश कुमार सिंह जी, हार्दिक बधाई स्वीकारे 

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 6:31pm

आदरणीय केवल भाई आपका आभार! आपको रचना पसन्द आई लिखना सार्थक हुआ।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 2, 2013 at 6:19pm

आदरणीय, बृजेश कुमार‘नीरज‘ जी, आपकी रचना हृदय को झकझोर रही है- ‘जागो
इस आंच को तेज करो
उठाओ डंडी
घुमाओ यह चाक
इस रेत और किनकियों से इतर
तलाशो साफ मिट्टी
चढ़ा दो चाक पर
बना दो नए बर्तन
हर घर के लिए
ये सोने का समय नहीं। आपको बहुत बहुत बधाई।

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 5:55pm

आदरणीय स्वर्ण जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद! दरअसल आपकी और आदरणीय सौरभ जी द्वारा प्रस्तुत व्याख्या ने मेरी इस रचना का मान बढ़ा दिया।
आज जो कुछ भी ऐसा लिख पा रहा हूं जो आप लोगों को कुछ सार्थक लग रहा है वह ओ बी ओ और यहां उपस्थित गुरूजनों के मार्गदर्शन का ही परिणाम है। मैं आदरणीय सौरभ जी का विशेष तौर पर आभारी हूं क्योंकि उन्होंने जिस तरह उंगली पकड़कर राह दिखायी है और जरूरत पड़ने पर डांट भी पिलायी है उसी कारण मुझमें कुछ सुधार सम्भव हो सका है।
आशा है आप लोग इसी तरह मुझे आगे भी राह दिखाते रहेंगे।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 5:50pm

आदरणीय सौरभ जी आपका शत शत आभार! यह सब आपके मार्गदर्शन का ही परिणाम है। 

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 5:32pm

 बृजेश नीरज जी 

शब्दों के पीछे छुपे सत्य को उभारने के लिए कविता सशक्त  माध्यम है। सत्य को जानने के लिए काविक बिम्ब के पार जाना होता है। यह कविता जड़ को चेतन करने की कविता है। कुम्हार एक बिम्ब है। वास्तव में यह कविता हम और आप की है। या किसी भी कर्मठ इंसान की।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 5:02pm

भाई बृजेश नीरजजी, आपकी इस प्रस्तुति का संदर्भ लूँ तो पाठकों के समक्ष आपका एक अलग ही लेखकीय स्वरूप सामने आया है. इस कविता की पंक्तियाँ जिस तरह का शब्दचित्र प्रस्तुत करती हैं कि नियंता के प्रति आह्वान सीधा, स्पष्ट तथा सार्थक हो जाता है. अन्यमनस्कता के बियाबान में ढूह बन रहे हैं ; नीरसता ऐसी कि गर्द की किरचियाँ तनमनायी पड़ी जा रही हैं ; समय की गति के सापेक्ष संसार मानो थमा पड़ा है ; रचनाधर्मिता की आँच लगातार सुषुप्त हुई जा रही है. ऐसे में संभावी मन चीत्कार न कर बैठे तो क्या करे ! उसी को क्यों न कुरेदे जिसके हाथ नीचे आँच, चाक, मिट्टी के लोंदों का हेतु सधता है ! उत्तम !

आपकी कविता एक सार्थक प्रयास है जड़त्व के लबादे को झंझोर कर उतार फेंकने का.  बिम्बों का सुन्दर प्रयोग हुआ है. एक पाठक को इससे अधिक की क्या कामना ? 

इस प्रभावी रचना के होने पर शत-शत बधाइयाँ, भाई.

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 4:29pm

राम शिरोमणि भाई आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on April 2, 2013 at 4:28pm

आदरणीय नादिर साहब आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

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