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वाणी जब नयनों से छलके
दो दिल में हो एक स्पंदन,
हो केशगुच्छ के अवगुंठन में
अधरों का अधरों से मिलन –
जब अलि के नीरव गुंजन से
सिहरित हो, पुष्पित कोमल तन,
जब भाव बहे सरिता बनकर
भाषा हो मृदुल, मंद समीरण –
प्रिये तभी होता है प्राणों का
जीवन से आलिंगन.

जब पवन चले औ’ किलक उठे
कलियों का दल इठलाकर,
जब तरु की शाखों में जाग उठे
उन कोमल पत्रों का मर्मर,
जब ओस बिंदु को मिलता हो
तृण का कम्पित अवलम्बन –
बंधु तभी मुखरित होता है,
यह जग, जीवन, अंतर्मन.

जब सांझ ढले इस क्लांत धरा पर
क्षितिज रंजित हो शर्माकर,
शांत नदी के वक्ष:स्थल पर
लहर थमे जब उठ उठ कर,
जब पीड़ा आनंद बने, हो व्याप्त भुवन में हँस हँस कर –
हे नाथ समाधित होता है तब,
तुममें यह मन, तुममें यह तन.
---------------------------------------------
फरीदाबाद जुलाई 1989

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Comment

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Comment by vijay nikore on April 1, 2013 at 3:08am

मित्र शरदिंदु जी,

 

मैंने आपकी कविता पढ़ी ही नहीं, 

उसके सौन्दर्य को  सराहा है...

 

जब ओस बिंदु को मिलता हो
तृण का कम्पित अवलम्बन –  .... वाह, वाह!
बंधु तभी मुखरित होता है,
यह जग, जीवन, अंतर्मन.

 

सादर,

विजय निकोर


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Comment by sharadindu mukerji on April 1, 2013 at 1:05am

आदरणीय विजय जी, आपने मेरी कविता पढ़ी, मैं धन्य हो गया.....आखिर किसीने पढ़ी तो.

Comment by vijay nikore on March 31, 2013 at 10:20pm

आदरणीय शरदिंदु जी:

 

आपकी यह कविता न जाने कैसे पढ़ने से रह गई।

 

अधरों का अधरों से मिलन –
जब अलि के नीरव गुंजन से
सिहरित हो, पुष्पित कोमल तन,
जब भाव बहे सरिता बनकर
भाषा हो मृदुल, मंद समीरण –
प्रिये तभी होता है प्राणों का
जीवन से आलिंगन.   ......................बहुत ही सुन्दर भाव हैं

 

आपने कोमल भावनाएँ अच्छी पिरोई हैं।

बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by coontee mukerji on March 28, 2013 at 5:36pm

आश्चर्य! " अनुभूति " अननुभूत रह गयी......

कृपया ध्यान दे...

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