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बारिश की धूप

सूरज कर्कश चीखे दम भर
दिन बरसाती
धूल दोपहर.. .।

उमस कोंसती
दोपहरी की
बेबस आँखों का भर आना
आलमिरे की 
हर चिट्ठी से
बेसुध हो कर फिर बतियाना.. .

राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये
पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।

चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में
कबसे एक
पता बसता है
जाने क्यों
हर आनेवाला 
राह बताता-सा लगता है

पलकें राह लिये जीतीं हैं 
बढ़ जाता
हर कोई सुनकर ।

गुच्ची-गड्ढे
उथले रिश्ते
आपसदारी कीचड़-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती 
घाव हृदय के बेतुक बीहड़.. .

बोझिल क्षण ले
मन का बढ़ना
नम पगडंडी
सहम-बिदक कर ।

*******************
--सौरभ

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 20, 2012 at 7:18pm

आदरणीया राजेशजी, आपकी टिप्पणी के अंदाज़ ने बहुत आत्मबल दिया है.

सहयोग बना रहे.  सादर धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 20, 2012 at 5:14pm

उमस कोंसती 
दोपहरी की 
बेबस आँखों का भर आना 
आलमिरे की  
हर चिट्ठी से 
बेसुध हो कर फिर बतियाना.. . 

राह देखती 
क्यों ’उस’ की 
ये
 पगली साँकल 
रह-रह हिल कर ।-------इन पंक्तियों को पढ़कर मन फ्लैश  बैक में चला गया ...वाह बहुत सुन्दर कविता लिखी है सौरभ जी तारीफ के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं कविता के शब्दों से जो पाठक का एक रिश्ता कायम हो जाता है मेरे विचार से वही असली कविता है 

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