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अमीरी

बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी 
सपनो की दुनिया मेरी आँखे मूँद सो गयी …
चार आने जेब में रखकर 
दुनिया लेने जाते थे 
चार आने में चार गोलियां 
संतरे वाली लाते थे 
चार चवन्नी रख गुल्लक में 
उसको रोज़ बजाते थे 
चार रुपये हो जाए तो एक 
नयी गुल्लक ले आते थे 
चार आने की खनक चार कंधो पे सो गयी 
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी …

छोटे छोटे कंधो पर 
दुनिया भर का बोझ था 
चार किलो का बस्ता लेकर
स्कूल को जाना रोज़ था 
बस्ते से पेंसिल रबर का 
अक्सर ही गुम जाना था 
पुराने बस्ते में नयी किताबें 
नए ढंग से सजाना था 
बज गयी घंटी छुट्टी स्कूल की हो गयी 
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी …

बड़े बनने के बड़े तरीके 
बिस्तर पर ही आते थे 
खुली आँखों से देख कर सपने 
झट से हम सो जाते थे 
पापा के जूते पहन पाँव में 
पैदल ही चल जाते थे 
छोटे चहरे पर बड़ी सी मूंछे 
काजल से हम बनाते थे 
काजल की वो काली मूंछे अब सफ़ेद सी हो गयी 
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी ….


रणवीर प्रताप सिंह 

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Comment

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Comment by Ranveer Pratap Singh on August 10, 2012 at 12:55pm

@ Rekha Joshi dhanywaad rekha ji

 

Comment by Rekha Joshi on August 9, 2012 at 10:48pm


बड़े बनने के बड़े तरीके 
बिस्तर पर ही आते थे 
खुली आँखों से देख कर सपने 
झट से हम सो जाते थे 
पापा के जूते पहन पाँव में 
पैदल ही चल जाते थे 
छोटे चहरे पर बड़ी सी मूंछे 
काजल से हम बनाते थे 
काजल की वो काली मूंछे अब सफ़ेद सी हो गयी 
बचपन की अमीरी जाने कहाँ खो गयी ….

अति सुंदर रचना रणवीर जी ,बचपन के दिन भी क्या दिन थे ,हार्दिक बधाई 

Comment by Ranveer Pratap Singh on August 9, 2012 at 1:38pm

@sonamsaini dhanywaad sonam ji... 

Comment by Sonam Saini on August 9, 2012 at 9:40am

आपने तो बचपन की याद दिला दी रणवीर प्रताप सिंह जी,
इतनी सुंदर रचना , सच में बचपन में हम  कितने  अमीर  थे 
बहुत बहुत बधाई आपको..........

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