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फ़ित्ने-नौ यूँ उठाने लगी ज़िंदगी |
आँख उनसे लड़ाने लगी ज़िंदगी ||
ताज़ा दम होने को आए थे बज़्म में,
सूलियों पे चढ़ाने लगी ज़िंदगी ||
होश खाने लगी मौत भी देखिये,
फिर ये क्या गुनगुनाने लगी ज़िंदगी ||
उनकी आवाज़ फिर आईना बन गई,
गो ग़ज़ल इक सुनाने लगी ज़िंदगी ||
इम्तेहाँ हर नफ़स, हर क़दम पर अदू,
किस क़दर आज़माने लगी ज़िंदगी ||
जिसकी हसरत में दिल चाकदामन हुआ,
ख़्वाब फिर वो दिखाने लगी ज़िंदगी ||
क़ल्बे-मुज़्तर में नासूर रौशन हुए,
गोया यूँ झिलमिलाने लगी ज़िंदगी ||
जुस्तजू तेरी जब तक रही, ज़ीस्त थी,
अब तो ‘साबिर’ जलाने लगी ज़िंदगी || [27/07/2004]

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Comment by Rekha Joshi on June 28, 2012 at 2:05pm

नमन दत्त जी ,

होश खाने लगी मौत भी देखिये,

फिर ये क्या गुनगुनाने लगी ज़िंदगी ||,बहुत खूब ,बधाई 
Comment by Albela Khatri on June 28, 2012 at 1:05pm

वाह वाह डॉ नमन दत्त जी.......
बहुत खूब ग़ज़ल....
उनकी आवाज़ फिर आईना बन गई,
गो ग़ज़ल इक सुनाने लगी ज़िंदगी ||
इम्तेहाँ हर नफ़स, हर क़दम पर अदू,
किस क़दर आज़माने लगी ज़िंदगी ||

____हाय हाय हाय हाय
_____मज़ा ही आ गया

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