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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १२

सबों से दिल की मुश्किलों का सबब क्या कहिए 
मगर जब अपनेही पूछें येसवाल तब क्या कहिए

वक्त क्यूँ ढाता है मासूमों पर गजब क्या कहिए
कहाँ जाती है नेकी -ए-कायनात अब क्या कहिए 

रूठकर खो गई जो अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में कभी 
होती है अबभी उन निगाहोंकी तलब क्या कहिए 

बहुत एहतियात से हुस्न की नजाकत संभालिए
रहिए फिक्रमंद कि तबक्या और अबक्या कहिए 

हम तो दिलसे हैं दिहिकान देहातोंमें हैं पले- बढ़े 
शहरके लोगों की चाल ढाल ओ ढब क्या कहिए 

भूख से सताए बच्चे, तगाफुल के मारे बड़े- बूढ़े 
रंगभरी दुनियामें है और क्या अजब क्या कहिए 

लोगोंको देखके फटेहाल रोता है दिल ज़ार-ज़ार 
किस जा बैठा है मेरा मौला मेरा रब क्या कहिए 

पैदाहुए हिंदू परवरिश मुसलमाँ जैसी अपनी राज़ 
अपना दीन -ओ- ईमान-ओ- मजहब क्या कहिए

© राज़ नवादवी 
भोपाल मध्याह्न १२.२८, १९/०६/२०१२ 

नेकी -ए-कायनात- सृष्टि की अच्छाई; अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में- संसार के चिंतन की भीड़ में; एहतियात- सावधानी; नजाकत- कोमलता; फिक्रमंद- चिंतनशील; दिहिकान- किसान, उजड्ड, गंवार; तगाफुल- उपेक्षा; परवरिश- लालन-पालन;

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:43am

फिर से टंकण की भूल, गूगल की और साधना करनी पड़ेगी- ' पढ़ने के जगह' अशुद्ध है, 'पढ़ने की जगह' पढ़ा जाए. 

Comment by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:34am

आदरणीय उमाशंकर जी एवं अरुण कुमार जी, सबसे पहले मैं अपनी गलती दुरुस्त कर लूं- 'आपने पढ़ने के जगह, आपने पढ़ने की' पढ़ा जाए, टंकण की भूल थी.

दूसरी बात- आपके किसी भी शब्द का कुछ भी बुरा नहीं माना है मैनें, भला क्यूँ मानूंगा? आपने इतने प्यार से जो कहा वही मेरे लिए अहम है. कहना चाहूँगा- 'हंस दिए जो वो बेसाख्ता पढ़ कर मेरे अशआर, मतलब से क्या मतलब, जो था मंसूब वो हुआ इज़हार'. बस दिल को इसी की खुशी है.

रही बात एक साथ ग़ज़लों को पोस्ट करने की तो फिर कहना चाहूँगा- 'था कोई बुलबुला बंद किसी बोतल में एक मुद्दत से, वा हुआ जो यकलख्त तो हर सू आबशार हुआ'.  बस, यही जज्बा था किसी बच्चे सा, और कुछ भी नहीं.

अन्य रचनाकारों के बारे में न सोचने की जो मुझसे भूल हुई है, उसपे अगर थोड़ा और प्रकाश डालेंगे तो भविष्य में ऐसी भूल करने की गुस्ताखी नहीं करूँगा. 

आपने  हमारे अशआरों को दाद दी है उसकी कीमत भला कैसे चूका पाउँगा कभी भी. अमूल्य है! आपका, राज़ नवादवी. 

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 28, 2012 at 11:33am

आदरणीय राज नवादवी जी हमारे जज्बात को अन्यथा ना लें आपकी सभी गजल उम्दा है

आपने एक साथ इतनी गजलें डाल दी की हमें आपकी कारगुजारी पर हंसी आ गई हुजुर एक एक गजल

को समझने के लिए काफी समय चाहिए अतः आपसे निवेदन है की गजलों को पोस्ट करने में फासला रक्खें

पैदाहुए हिंदू परवरिश मुसलमाँ जैसी अपनी राज़ 
अपना दीन -ओ- ईमान-ओ- मजहब क्या कहिए क्या बात कही है आपकी ये लाइन धर्म निरपेक्षता को बढावा देने वाली है

रचना बेहतरीन है आपके गजलों की प्रस्तुति हमें खूबसूरत हास्य मय लगी थी अतः  क्षमा प्रार्थी है हम

हमरा उद्देश्य केवल यह है की आप अन्य रचनाकारों के बारे में भी सोंचे......

Comment by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:26am

धन्यवाद भाई अरुण एवं उमाशंकर जी जो आपने पढाने के ज़हमत उठाई! 

- राज़ नवादवी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 27, 2012 at 11:39pm

खूबसूरत हास्य गज़ल

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