सूरज के विरुद्ध
षड्यंत्र रच
आततायी कोहरे को
निमंत्रण किस ने दिया
कोई नहीं जानता
ठण्ड खाया क़स्बा
पथरा गया है
हरारत महसूस होती है
ज्वर हो तो ही
अलाव तापते लोग
दिखाई नहीं देते
बस खांसते,खंखारते हैं
बंद कमरों में
सक्षम आदेश बिना ही
अनधिकृत कर्फ्यू
जारी हो गया
कस्बे में
जमाव बिंदु से नीचे पहुंचे
पारे ने
नलों का पानी ही नहीं
जमा दिया
कस्बे की
धमनियों का रक्त भी
रजाई में दुबका क़स्बा
उनींदा पड़ा रहेगा
दिन भर
मौसम को कोसता
इस आलसी
आत्म समर्पण को
ललकारती कोई आवाज़
एक दिन गूंजेगी कस्बे में
उस दिन भी शायद
अंगडाई ही ले क़स्बा
सूरज तुम कब आओगे
इस कोहरे की चादर को
फाड कर
मैं उस दिन
सूर्य नमस्कार के मन्त्र
नहीं जपूंगा
सीधा पी जाऊँगा तुम्हे
आँखों से ही
जागेगा ये उनींदा
क़स्बा भी
Comment
ए के राजपूत साहब अत्यंत आभार आप का
आभारी हूँ बागी साहब
सम्मान्य सौरभ पांडे साहब अत्यंत आभारी हूँ आप की विस्तृत सार गर्भित टिपण्णी के लिए ......क्षमा प्रार्थी हूँ देर से देखने के लिए
सूरज के विरुद्ध
षड्यंत्र रच
आततायी कोहरे को
निमंत्रण किस ने दिया ...
इस सर्दी में और भी सर्दी का एहसास कराती यह कविता, गहरे भाव को अपने आगोश में छुपाये हुए बहुत कुछ कह सकने में सामर्थवान है, बहुत बहुत बधाई अश्वनी कुमार शर्मा जी , बधाई स्वीकार करें |
सूरज तुम कब आओगे / इस कोहरे की चादर को / फाड कर / मैं उस दिन / सूर्य नमस्कार के मन्त्र / नहीं जपूंगा / सीधा पी जाऊँगा तुम्हे / आँखों से ही
इन अद्भुत पंक्तियों के लिये अश्विनी कुमार शर्माजी आपको मेरा हार्दिक अभिनन्दन.
प्रस्तुत अभिव्यक्ति के जरिये बहुत कुछ कह डाला है आपने. ज्वाजल्यमान सूर्य से अपेक्षित व्यापकता को, सत्य है, किसी षड्यंत्र के अंतर्गत ही कुण्ठित किया जाता रहा है. परन्तु, यह भी सत्य है कि ऐसी तामसिक वेला को अधिक समय तक बनाये रख पाना किसी नकारात्मक वैचारिकता के वश में नहीं होता --कुहरे छँटते ही हैं, प्रस्फुटित हो प्रकाश छिटकता ही है. आशाएँ उत्साहित होती ही हैं. सकारात्मकता बल पाती ही है.
शीत प्रभावित वातावरण में आपकी इस रचना ने जीवन की गरमाई को रेखांकित किया है. साधुवाद.
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं
तत्वं पूषण अपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ..
इस सूर्य-मंत्र के आह्वान को आज कुछ और भी शिद्दत से महसूस कर पा रहा हूँ... . अद्भुत ! अद्भुत !! .. .
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