For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

भूख की चौखट पे आकर कुछ निवाले रह गए

फिर से अंधियारे की ज़द में कुछ उजाले रह गए

 

आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया

इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए

 

लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम

चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए

 

जब से मंजिल पाई है होता नहीं है दर्द भी

देते हैं आनंद जो पाओं में छाले रह गए                                    

 

जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई

इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये

 

अब डुबा दे या कि पहुंचा दे मुझे उस पार तू

हम तो सब कुछ भूलकर तेरे हवाले रह गए

 

उनसे बढ़कर इस जहाँ में है नहीं कोई धनी

अपने पुरखों की विरासत जो संभाले रह गए

 

 

Views: 747

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Lata R.Ojha on December 1, 2011 at 1:30pm

avismarneey pal the jab sabhi ki rachnaon ko sun aur saraah saki ..Aapki is ghazal ne to sabko  waah waah  karne ko majboor kar dia..bahut khoob kahte hain aap :) badhai..

Comment by विवेक मिश्र on December 1, 2011 at 9:29am

मेरे लिए ख़ुशी की बात यह है कि मैं इस ग़ज़ल को सीधे उसके शायर की जुबानी सुन सका. पूरी ग़ज़ल तो बाद में... पहले तो मतले पर ही पूरा मुशायरा लुट जाए. और इस शे'र की तो क्या बात की जाए..

"जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई

इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये"
वाह-उस्ताद-वाह... (अरे हुज़ूर.. वाह 'राणा' बोलिए..)
जय हो!!!

Comment by राज लाली बटाला on December 1, 2011 at 12:52am

लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम

चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए !!! वा राणा जी !!

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 30, 2011 at 9:12pm

 

राणा जी.. !!  .. क्या दिल को खँगाला है, माँजा है.. वाह ...  और जो कुछ कढ़ा है, वोह ये ग़ज़ल बन कर उभरा हैं.

हम क्या कहें, भाई,  लेकिन भाव जब दिल को छुएँ तो बेसाख़्ता ’वाह-वाह’ के बोल फूट ही पड़ते हैं.

 

इन अश’आर पर मैं कुछ जाती तौर पर कहूँगा -

भूख की चौखट पे आकर कुछ निवाले रह गए

फिर से अंधियारे की ज़द में कुछ उजाले रह गए

इस मतले पर हम दंग हैं. दाद तो बाद में, अव्वल तो  भूख की चौखट पर आकर निवालों को बेबस होते हुए सोचना. ओह !

और जो कुछ बना भी, तो फिर अंधियारे की ज़द को सोच कर भी अवाक् हैं. बहुत-बहुत बधाई. वाह-वाह-वाह !!

 

आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया

इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए

इस शे’र पर दिल-जाँ, होश-दिमाग़ सबकुछ कुर्बान.. !  सही है, ताक़त की कसौटी अब ऐसी ही ज़िद हो गई हैं,  जो घिनौने अहंकार का तुष्टिकरण करती है.

 

लाख कोशिश की मगर फिर भी छुपा ना पाए तुम

चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए

इन घेरों के पीछे का राज़ अब राज़ नहीं हुआ करते फिर भी जरा कोई झुके हुए कंधों से पूछे. तो उनका कोई नय रुख़ सामने होगा.

 

जब से मंजिल पाई है होता नहीं है दर्द भी

देते हैं आनंद जो पाओं में छाले रह गए  

बहुत खूब.. जो दर्द है वही अपना है न ! बाकी तो बलबले हैं पानी की सतह बिलबिला कर उभरते, फूटते.

 

जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई

इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये

वाह उस्ताद, वाह ! क्या अंदाज़ है !! चुप्पियों को कई-कई रूपों में देखा है. सही कहूँ, उनके जाले से बहुत डर लगता है.  

 

अब डुबा दे या कि पहुंचा दे मुझे उस पार तू

हम तो सब कुछ भूलकर तेरे हवाले रह गए

भाई, नवधा भक्ति के अध्याय में इस भाव को मार्जार-भक्ति कहते हैं !

अब ’वो’ बना दे या फिर बिगाड़ ही दे, जानोदिल सारा तो कर दिया ’उसके’ हवाले.  राणा जी,  इस शायराने अंदाज़ में जो समर्पण है वह आपकी कहन को बहुत ऊँचाई दे रहा है. अभिभूत हूँ. 

 

उनसे बढ़कर इस जहाँ में है नहीं कोई धनी

अपने पुरखों की विरासत जो संभाले रह गए

आखिरी शे’र ने तो रग-रग को सौंधी ख़ुश्बू से तर कर दिया, भाई !  पुरखों की उन्नत परिपाटियों, तहज़ीब और उद्दात भावनाओं को जो कौम ज़िन्दा रखती है वाकई वही धनी हुआ करती है. और उस कौम के लोग ज़िन्दा हुआ करते हैं..

 

अपनी इस ग़ज़ल पर मेरी भरपूर मुबारकबाद कुबूल फ़रमायें. बहुत दिनों से इस पटल को आपकी प्रविष्टि का इंतज़ार था और किस लिहाज और तहज़ीब से तर किया है आपने इन आँखों को...  इस पुरकशिश ग़ज़ल ने भरपूर मुत्मईन किया है.

वाह-वाह-वाह !!

 

Comment by वीनस केसरी on November 30, 2011 at 5:03pm

आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया

इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए


वाह भाई क्या लाजवाब कटाक्ष किया है
पूरी ग़ज़ल सुन्दर बन पडी है
हर शेर लाजवाब

अब कहना तो बनता है >>> जिंदाबाद जिंदाबाद

Comment by Shyam Bihari Shyamal on November 29, 2011 at 6:56am

वाह... बहुत जीवंत रचना... बधाई राणा प्रताप जी...

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
16 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
yesterday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service