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(दहेज़ के लिए पत्नी को जलाने,हत्या करने जैसी घटनाएँ आज भी हमारे समाज में घट रही हैं. हम कैसे मान लें हम पहले से अधिक शिक्षित और सभ्य हो चुके हैं. मानसरोवर --4 इसी अमानुषिक कृत्य पर आधारित है.

OBO के सभी मित्रों से अनुरोध है कि इस अमानवीय घटना की कड़ी भर्त्सना करें.)
मानसरोवर -- 4

 

दहेज़ -तिलक का यह रिवाज़, मानवता में है एक दराज.
मानव का है यह नहीं कर्म, मानवता का यह नहीं धर्म.
             फिर कौन बनाया यह रिवाज़?
             फिर किसका है यह घृणित काज?
कुछ लोभी इंसानों ने, मुट्ठी भर बेईमानों ने.
हम सब को गुमराह किया. संस्कृति -धर्म को स्याह किया.
             ये ही समाज के शोषक हैं.
             दहेज़ -नाग के पोषक हैं.
इनको दण्डित करना होगा, इनको खंडित करना होगा.
अन्यथा शकुनियों का गिरोह, योजनाबद्ध अधमों का द्रोह.
             मानव -परिधान भिंगोयेगा.
             मानवता -डोंगी डुबोयेगा.
जहां इज्ज़त का लगता बाज़ार,शादी का होता है व्यापार.
वह कोठी भी कोठा ही है, वह फूल नहीं काँटा ही है.
             जो सबका रुधिर बहाता है.
             जो सबका बसन चबाता है.
सुत का जो आज विक्रेता है, वह कल पर सुत का क्रेता है.
कैसा अजीब है यह व्यापार, कितना पतित यह रोज़गार.
             माना कि ख़ुशी यह अपनी है.
             पर देख, लाश भी अपनी है.
शादी रिश्तों में बंधना है, शादी दो दिल का मिलना है.
शादी तो प्यार का सागर है, स्नेह -सुधा का गागर है.
             रिश्ते बाज़ार में बिकते हैं?
             क्या प्रेम हाट में मिलते हैं?
दुनिया का सजा हुआ आँगन, भू, भूधर,ब्योम,वात -कानन.
धरती की यह प्यारी सूरत, नैनों के प्रिय मानव -मुरति.
              नर -नारी के ही दम से है.
              नर -नारी के ही श्रम से है.
फिर नारी क्यों लाचार यहाँ? फिर नारी क्यों असहाय यहाँ?
वह भी है पुरुषों के समान, फिर क्यों रिवाज़ यह असमान?
              नारी होना कोई पाप नहीं.
              नारी होना कोई शाप नहीं.
सोचो! यदि ऐसा भी होता, नारी का पता नहीं होता.
तो कौन बहन - माता होती? कौन प्रिया - कान्ता होती?
              क्या पुरुषों का होता समाज?
              जिसका दहेज़ ही है रिवाज़?
माँ बन जो ममता दान किया, बन बहन कवच का काम किया.
प्रेयसी बन प्यार लुटाया जो, पत्नी बन सेज सजाया जो.

               वह रोती और बिलखती है.

              हंसी देकर, आप सिसकती है.

ओह! कितना पतित इंसान हुआ, कितना बेईमान ईमान हुआ.

चांदी - सोने के ढेरों में, रुपये - पैसों के घेरों में.

             माँ और बहन को छिपा दिया.

             पत्नी - प्रेयसी को लुटा दिया.

युवजन को समय पुकार रहा, मत भूल कि कल तेरा है.

पर दहेज़ को ख़तम करो, यह प्रबल शत्रु तेरा है.

युवक -युवती हैं समान, फिर क्यों दहेज़ का घेरा है.

प्रिय,तुम्हारे कर कमलों में मानसरोवर मेरा है.

  • गीतकार - सतीश मापतपुरी

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2011 at 2:14pm

आपके विचारों का अनुमोदन करते हुए आपकी संवेदना को धन्यवाद देता हूँ.

Comment by Rash Bihari Ravi on July 26, 2011 at 11:41am

युवजन को समय पुकार रहा, मत भूल कि कल तेरा है.

पर दहेज़ को ख़तम करो, यह प्रबल शत्रु तेरा है.

युवक -युवती हैं समान, फिर क्यों दहेज़ का घेरा है.

प्रिय,तुम्हारे कर कमलों में मानसरोवर मेरा है.

aap ki bato ko samarthan karte huye ham aapna bhi birodh darj karate hain

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