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राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 29

पूर्व से आगे ...........

चारों कुमार धीरे-धीरे बड़े होने लगे।
अयोध्या में राज-परिवार ही नहीं प्रजा के भी चहेते थे चारों बाल-कुमार।


विधाता ने उन्हें छवि भी तो अद्भुत प्रदान की थी। उनमें भी श्यामल होते हुये भी राम के सौन्दर्य की तो कोई उपमा ही नहीं थी। पुष्ट-गुदगुदा शरीर, अपनी वय के अनुसार श्रेष्ठ लम्बाई, सदैव आसपास की प्रत्येक वस्तु को पूरी तरह समझने को तत्पर्य आँखें। उसकी चंचलता में भी अद्भुत सौम्यता थी जो किसी ने और कहीं देखी ही नहीं थी। राम की सौम्यता के विपरीत लक्ष्मण और शत्रुघ्न में विशेष चपलता थी - सदैव उत्सुक, उल्लसित कुछ न कुछ नवीन करने को उद्यत। भरत ने अपेक्षाकृत शांत स्वभाव पाया था। अभी से ऐसा प्रतीत होता था कि वह अत्यंत धैर्यवान सिद्ध होगा भविष्य में।


चारों ही कुमारों को किसी भी वस्तु के लिये हठ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। उनकी प्रत्येक अभिलाषा प्रकट होने से पूर्व ही पूर्ण कर दी जाती थी।

माताओं की तो पूरी दिनचर्या ही कुमारों के चतुर्दिक केन्द्रित हो गयी थी। तीनों मातायें नौनिहालों को देख-देख निहाल होती रहती थीं। माताओं के व्यवहार से यह समझ पाना कदापि संभव नहीं था कि कौन किसका पुत्र है। चारों ही तीनों माताओं के परम दुलारे थे। फिर भी कैकेयी का राम पर स्नेह असीमित था। राम के चेहरे पर जरा सी उदासी लक्षित करते ही वे उद्विग्न हो जाती थीं। कहीं अगर राम खेल में भी रो दिये तो बस ... दास-दासियों के लिये संकट उत्पन्न हो जाता था।

और महाराज दशरथ, उनमें तो जैसे नवीन प्राणों का संचार ही हो गया था। पहले अन्यमनस्कता में राज-पाट पर उचित ध्यान नहीं दे पाते थे, अब पुत्रों के मोह में। वह तो कुशल मंत्रिपरिषद, विशेषकर जाबालि की कर्मठता थी जो सारे कार्य बिना किसी विघ्न के उचित रीति से सम्पादित हो रहे थे। प्रजा पूर्ण संतुष्ट थी। सब ओर खुशहाली थी।


प्रातः का समय था। ज्येष्ठ मास समापन की ओर था अतः अभी से ग्रीष्म का प्रकोप आरंभ हो गया था। दशरथ स्नानादि से निवृत्त होकर पूजन के हेतु बैठे थे। आराध्य के सम्मुख आँख बन्द किये, सस्वर गायत्री मंत्र का जाप कर रहे थे कि चारों कुमार दौड़ते हुये मन्दिर में घुस आये। उलझे केश, अस्त-व्यस्त वस्त्र - आते ही चारों में पिता की गोद में चढ़ने को लेकर द्वन्द्व होने लगा। मात्र भरत शांत खड़ा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। दशरथ ने चारों को बाहों में समेट लिया और हँसते हुये बोले -


‘‘अरे-अरे ! देखो तो मैं पूजन कर रहा हूँ।’’
‘‘हम भी पूजन करेंगे पिताजी !’’ लक्ष्मण और शत्रुघ्न एक साथ बोले।
‘‘पूजन करोगे तो मेरे पीछे खड़े हो सीधी कतार में और आँखें बन्द कर, हाथ जोड़ कर प्रभु का स्मरण करो।’’
‘‘आँखें बन्द कर प्रभु को देखेंगे कैसे पिताजी ?’’ शत्रुघ्न ने शंका प्रकट की।
‘‘उनको यदि सच्चे मन से याद करोगे तो अवश्य दिखाई पड़ेंगे। चलो करो।’’
‘‘नहीं हम तो आपकी गोद में बैठ कर पूजा करेंगे।’’ लक्ष्मण उनकी गोद में चढ़ता हुआ बोला। लक्ष्मण के चढ़ते ही बाकी कुमार भी चढ़ने लगे।
‘‘प्रभु क्षमा करना किंतु कहते हैं कि बच्चों में ही ईश्वर निवास करता है। बस मुझे तो इसी ईश्वर की सेवा करने दें, इसी में आप संतुष्ट हो लें।’’ दशरथ कुमारों को सम्हालने का प्रयास करते हुये प्रसन्नता के आवेग में कह उठे।
‘‘पिताजी यह ईश्वर क्या होता है ?’’ राम ने प्रश्न कर दिया।
दशरथ और जोर से हँसे -‘‘बड़ा कठिन प्रश्न कर दिया राम ! कैसे समझाऊँ ???’’ फिर जैसे उत्तर मिल गया हो बच्चों की तरह ही प्रसन्न होते हुए बोले -
‘‘बस यों समझ लो तुम्हीं हो ईश्वर।’’
‘‘पिताजी राम भइया ईश्वर हैं ?’’ यह प्रश्न शत्रुघ्न की ओर से आया था।
‘‘हाँ तुम्हारे राम भइया ही नहीं तुम सभी ईश्वर हो।’’
‘‘सच्ची पिताजी ! हम सभी ईश्वर हैं ?’’
‘‘हाँ ! तुम सभी। तुम सभी मेरे ईश्वर हो। इस अयोध्या के ईश्वर हो।’’ दशरथ कुछ भावुक हो उठे। आँखों की कोर अनायास गीली हो उठी।
‘‘पिताजी आप रो रहे हैं। चोट लग गई कहीं ?’’ गीली आँखें देख भरत ने प्रश्न कर दिया।
‘‘अरे नहीं रे ! ये तो प्रसन्नता के आँसू हैं।’’
‘‘प्रसन्नता के आँसू ! माता तो कहती हैं कष्ट में आँसू निकलते हैं ?’’ आश्चर्य से भरा यह प्रतिप्रश्न लक्ष्मण का था।
‘‘तुम्हारी माता तो ऐसे ही कहती हैं, प्रसन्नता मंे भी आँसू निकलते हैं। कष्ट के आँसू निकलते हैं तो व्यक्ति रोता है। जैसे तुम रोते हो ऊँ .. ऊँ .. करके।’’ दशरथ ने रोने की नकल करते हुये कहा। पर देखो मैं कहीं रो रहा हूँ ? मैं तो हँस रहा हूँ। इसलिये मेरे आँसू प्रसन्नता के आँसू हैं।’’
‘‘हाँ पिताजी ! आप तो हँस रहे हैं।’’ लक्ष्मण की समझ में बात आ गयी थी किंतु शत्रुघ्न अभी भी अपने प्रश्न में उलझा था - ‘‘किंतु पिताजी ईश्वर होना क्या होता है ?’’
‘‘अरे बाबा रे ! मेरे बस का नहीं तुम लोगों के प्रश्नों का सामना करना।’’ दशरथ को एकाएक कोई उत्तर नहीं सूझा तो उन्होंने बात घुमाते हुये पूछा - ‘‘अच्छा क्या खाओगे बताओ ?’’
‘‘आम’’ चारों ने एक स्वर से उत्तर दिया। ‘‘आमवन में चलिये न पिताजी’’ - चंचल लक्ष्मण ने दशरथ के अधोवस्त्र खींचते हुये उतावली दिखाई।
‘‘अरे बाबा चलते हैं। लेकिन तुम लोग थक जाओगे। अभी अनुचर को बुलाता हूँ। वह तुम्हें गोद में ले लेगा, फिर चलते हैं।’’
‘‘नहीं पिताजी ! हम नहीं थकेंगे। हम तो बड़े हो गये हैं अब।’’ आम का जिक्र आ जाने भर से लक्ष्मण से लोभ का संवरण नहीं हो रहा था, उसने पूर्ववत अधोवस्त्र खींचते हुये कहा।
‘‘अच्छा चलो। किंतु दौड़ना नहीं।’’
‘‘नहीं दौड़ेंगे।’’ चारों ने एकसाथ कहा।
‘‘पक्का ?’’
‘‘बिलकुल पक्का पिताजी !’’
दशरथ पुत्रों को लेकर प्रासाद के उपवन की ओर चल दिये जहाँ तमाम आम के वृक्ष लगे थे। मार्ग में आते हुये जाबालि मिल गये। दशरथ को देख कर उन्होंने झुक कर प्रणाम किया -
‘‘महाराज की जय हो !’’
‘‘क्या मित्र ! यह राजकीय आडंबर राजसभा के लिये ही रहने दो। यहाँ तो मैं स्वयं इन महाराजों का दास हूँ।’’ कहकर दशरथ ठठाकर हँस पड़े।
‘‘यही सही ! इस रूप में अगर महाराज का उन्मुक्त हास्य सुनाई पड़ता है तो प्रजा इसमें भी प्रसन्न है। इन कुमारों से बड़ा महाराज कौन हो सकता है।’’
‘‘उचित कहा ! और बतायें कैसे आना हुआ ? कोई विशेष प्रयोजन ?’’
‘‘नहीं महाराज ! कल आप राजसभा में नहीं पहुँचे थे अतः बस दर्शन करने चला आया। सोचा देख आऊँ आज आने की संभावना है या नहीं !’’
‘‘कैसे आऊँ मित्र ? देख रहे हो चाकरी कर रहा हूँ।’’ कहकर दशरथ पुनः हँस पड़े।
‘‘इसे चाकरी क्यों कह रहे हैं महाराज ! यह तो त्रैलोक का सबसे बड़ा आनंद है। इसे बस अनुभव किया जा सकता है, वर्णन नहीं किया जा सकता। गूँगे का गुड़ कह लीजिये इसे।’’ जाबालि ने भी हँसते हुये कहा।
‘‘अरे-अरे रुको ! तुमने वचन दिया था कि दौड़ोगे नहीं।’’ अचानक दशरथ का ध्यान जाबालि की ओर से हटकर कुमारों की ओर चला गया जो दूर से ही आम्रवन को देख दौड़ पड़े थे। उन्होंने भी अपनी गति तीव्र कर दी। तभी आवाजें सुन कर आम्रवन के परिचर बाहर निकल आये। उन्हें देखते ही दशरथ लगभग दौड़ते हुये ही चिल्लाये -
‘‘अरे सम्हालो उन्हें ! देखो गिर न जायें।’’
जाबालि पीछे-पीछे मुस्कुराते हुये चले आ रहे थे। सदैव गंभीर रहने वाले सम्राट का यह रूप उन्हें सुहा रहा था।
चारों कुमारों को परिचारकों ने दौड़ कर गोद में उठा लिया था और उनकी चंचलता पर आनंदित होते हुये उन्हें आम्रवन की ओर लिये जा रहे थे। अब दशरथ कुमारों की ओर से निश्चिंत हो गये थे। तीव्र गति से चलने के कारण उनकी साँस फूलने लगी थी। उन्होंने सोचा ‘वार्धक्य दस्तक देने लगा है। देने दो, अब क्या चिंता ! अब तो चार-चार कुमार हैं, भविष्य में शासन सम्हालने के लिये।’ अपनी सोच पर वे स्वयं हँस पड़े और रुक कर जाबालि की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही पलों में जाबालि भी आ गये - दशरथ की ही भाँति विहँसते हुये।
‘‘पता है मंत्रिवर मैं क्या सोच कर हँसा था अभी ?’’
‘‘कुमारों के चांचल्य पर हँसे होंगे, और क्या !’’
‘‘अरे नहीं ! मैं सोच रहा था कि अब वार्धक्य आ गया है किंतु क्या चिंता, कुछ ही दिनों में ये चारों कुमार बड़े हो जायेंगे राज्य का भार सम्हालने के लिये।’’
‘‘यह तो है महाराज ! अब सम्पूर्ण कोशल निश्चिंत है। प्रसन्न है।’’ जाबालि मुस्कुराये।
दशरथ पुनः बोले -
‘‘अच्छा अब अपने आने का वास्तविक प्रयोजन बताइये। आपकी भी व्यर्थ ही दौड़ करा दी मैंने।
‘‘नहीं महाराज ! ऐसी मनभावन दौड़ हो तो मैं तो नित्य दौड़ने को तत्पर हूँ।’’ जाबालि ने हँसते हुये कहा।
‘‘कोई अन्य राजकीय समस्या या कोई व्यवस्था सम्बन्धी कोई प्रश्न ? सब उचित रीति से तो चल रहा है महामात्य ?’’
‘‘नहीं महाराज ! किसी भी प्रकार की कोई भी समस्या नहीं है। समस्त व्यवस्था उचित रूप से चल रही है, उस विषय में आप पूर्ण निश्चिंत रहें। आप बस हमारे कुमारों को प्रसन्न रखें, शेष समस्त व्यवस्थायें मंत्रिपरिषद देख लेगी।’’ जाबालि ने हँसते हुये कहा।
‘‘यह तो है ! आप लोगों के होते मुझे कोई चिंता हो ही नहीं सकती।’’ महाराज हँसे फिर धीरे से चुटकी लेते हुये बोले - ‘‘फिर भी आपको देख कर ऐसा लगता है कि इस आनंद से निकल कर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ना पड़ेगा, बस यही कष्ट हो जाता है।’’
‘‘तो मत ओढ़िये महाराज ! जब तक कोई वाह्य अतिथि नहीं आता तब तक आपका यह बालरूप ही कोशल को पसंद है। आप ऐसे ही रहें।’’ जाबालि ने भी पूर्ववत हँसते हुये कहा।
ये लोग भी अब आमों के झुरमुट में प्रवेश कर चुके थे। परिचारक दौड़ कर पीठिकायें द्वार के निकट ही वृक्षों की छाया में उठा लाया था और दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था। दशरथ बैठ गये।
‘‘बैठिये महामात्य ! खड़े क्यों हैं ?’’
‘‘नहीं ! अब मुझे आज्ञा दीजिये। राजसभा में जाने का समय हो रहा है।’’
‘‘अरे नहीं ! इससे बड़ी राजसभा और कौन सी हो सकती है जहाँ आपके राजा के भी राजा उपस्थित हैं। बैठिये आम खाकर जाइयेगा।’’ दशरथ उन्मुक्त हास्य के साथ बोले।
‘‘नहीं महाराज ...’’
‘‘अरे बैठिये भी !’’ दशरथ ने उनका वाक्य पूरा नहीं होने दिया और हाथ पकड़ कर बैठा लिया। तभी उनका ध्यान पेड़ पर चढ़ने का प्रयास करते लक्ष्मण और शत्रुघ्न पर गया। वे चिल्लाये -
‘‘देखो-देखो ! क्या कर रहे हैं ये !’’ और कहने के साथ ही स्वयं भी उठकर उनकी ओर बढ़ गये।


क्रमशः

मौलिक तथा अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

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Comment

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Comment by Sulabh Agnihotri on July 31, 2016 at 12:17pm

आभार आदरणीया KALPANA BHATT Ji !

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 22, 2016 at 5:30pm

वाह अद्भुत वर्णन | 

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