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कभी इसके दर पे कभी उसके दर पे।
सियासत की पगड़ी पहनते ही सर पे।।

वही कुछ किताबें वही बिखरे पन्नें।
मिलेगा यही सब अदीबों के घर पे।।

लगे गुनगुनाने बहुत सारे भौरें।
नया फूल कोई खिला है शज़र पे।।

मुझे प्यार से यूँ ही नफरत नहीं है।।
बहुत ज़ख़्म खाएं है जिस्मों जिगर पे।

बहुत कुछ है अच्छा बहुत कुछ हसीं है।
लगाओ न नफरत का चश्मा नज़र पे।।

जिधर देखो लाशें ही लाशें बिछी है।
मुसीबत है आयी ये कैसी नगर पे।।

कहन आपका अब बहुत ही है अच्छा।
मगर आप सीखो तो लिखना बहर पे।।

मौलीक अप्रकाशित

राम शिरोमणि पाठक

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Comment by ram shiromani pathak on May 10, 2018 at 10:21pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी

Comment by ram shiromani pathak on May 10, 2018 at 10:20pm

अमुल्य सुझाव हेतु कबीर साहब बहुत बहुत आभार।।सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 10, 2018 at 7:21pm

बहुत बढिया ग़ज़ल हुई राम शिरोमणि भैया .बस अंतिम शेर पर मोहतरम समर साहब की बात पर गौर करें 

Comment by Samar kabeer on May 10, 2018 at 11:13am

जनाब राम शिरोमणि पाठक जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

आख़री शैर में क़ाफ़िया दोष  सहीह शब्द "बह्र" है, देखियेगा, मिसरा बदलने का प्रयास करें ।

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