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मेरा कच्चा मकान क्या करता (ग़ज़ल 'राज')

२१२२  १२१२    २२

बात खाली मकान क्या करता

दास्ताँ वो बयान क्या करता 

 

पंख कमजोर हो गये मेरे  

लेके अब  आसमान क्या करता 

उसकी  सीरत ने छीन ली सूरत

उसपे सिंघारदान क्या करता 

 

रूठ जाते मेरे सभी अपने

चढ़के ऊँचे मचान क्या करता

 

नींव में झूठ की लगी दीमक 

लेके ऐसी दुकान क्या करता

 

बाढ़ में ढह गये महल कितने    

मेरा कच्चा मकान क्या करता

 

मौन सब थे निजाम की सुनकर

मैं चलाकर  जुबान क्या करता

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on July 11, 2017 at 6:43pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,वाह वाह बहुत ख़ूब, क्या शानदार ग़ज़ल कही आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 11, 2017 at 3:33pm
आदरणीया राजेश जी शानदार ग़ज़ल हुयी है बाढ़ में ढह गये महल कितने
मेरा कच्चा मकान क्या करता

मौन सब थे निजाम की सुनकर
मैं चलाकर जुबान क्या करता
इन शेरो के लिए बृषेश रूप से बधाई स्वीकार करें सादर

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Comment by rajesh kumari on July 11, 2017 at 2:47pm

मोहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया |

Comment by Ravi Shukla on July 11, 2017 at 2:29pm

आदरणीया राजेश जी बहुत अच्‍छी गजल कही आपने  बहुत बुहुत बधाई आपको एक दो शेर का माेह छोड़ सकती है अाप ।सादर

Comment by Sushil Sarna on July 11, 2017 at 2:28pm

बात खाली मकान क्या करता
दास्ताँ वो बयान क्या करता

जिस्म बीमार रूह घायल थी
हसरतें दिल जवान क्या करता

आदरणीया राजेश कुमारी जी इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें चंद लाइनें आपकी नज़्र :

हर शेर वाह के काबिल है
हर शेर पे ज़ुबाँ मचलती है
अंत नहीं अज़ल ज़िंदगी का
अजल में भी हयात चलती है
सरना*

Comment by Mohammed Arif on July 11, 2017 at 2:18pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, अच्छी औसत दर्जे वाली ग़ज़ल का प्रयास । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । गुणीजन अपनी राय देंगे । इंतज़ार करें ।

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