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चाय की पत्ती (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"भाभी, चाय खौल चुकी है, कहाँ खोई हुई हो तुम!" देवरानी ने गैस चूल्हा बंद करते हुए जिठानी से कहा।
"ओह, मैं चाय की पत्ती के बारे में सोच रही थी!"
"क्यों?"
"मैं भी यहाँ चाय की पत्ती ही तो हूँ!"
"क्या मतलब?"
"बिना शक्कर के सबको चाय कड़वी ही तो लगती है, मिठास मिले तो सबको मीठी चाय भाये!"
"लेकिन चाय मीठी हो या फीकी, रिश्ते मधुर बनाने में एक पहल तो करती ही है, बस यह ध्यान रहे कि कहां फीकी चलेगी और कहां मीठी!"
"सही कहा तुमने, लेकिन नौकरी पेशा औरत को जब मध्यमवर्गीय परिवार में प्यार ही न मिले तो!" भीगी आँखों से देवरानी की ओर देखकर जिठानी ने कहा- " मैं सुंदर नहीं हूँ तो क्या हुआ, मैंने हर तरह से पहल की, लेकिन मैं सबको कड़वी ही लगी न ! नौकरी और घर-गृहस्थी के साथ रिश्ते निभाते हुए बस थोड़ा सा सच्चा प्यार पति और ससुराल से मिल जाता तो कितना अच्छा होता!"
"हाँ, रिश्ते और ज़िन्दगी मधुर हो जाती! लेकिन मीठी चाय पसंद करने वाले बिना शक्कर डाले ही मीठी चाय की ख़्वाहिश रखें, तो चाय की पत्ती का क्या कसूर!"

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 14, 2016 at 2:53pm

आदरणीय शेख जी मुझे लघु कथा के बिषय में बहुत जानकारी तो नहीं है पर मैं लघु कथा पढने में दिलचस्पी खूबी लेता हूँ रचना अच्छी लगी पर कही कुछ कमी सी मालूम हो रही है ..बस ऐसा लग रहा है बिषय और सोच में नया पण लगा इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by kanta roy on June 14, 2016 at 11:51am

चाय  की  पत्ती महँगी होने  के  साथ ही  तलबगारों  के  लिए उनकी जरुरत  होती है . और वक्त पर  ना मिलने पर छटपटा जाते है .चाय  की  पत्ती में  औषधीय गुण भी होता है और इस्तेमाल के  बाद मिटटी में  मिलकर उसे भी  पोषण देता है अर्थात चाय की पत्ती हर  हाल  में  महत्वपूर्ण है . पारिवारिक रिश्ते भी हर  हाल  में  महत्वपूर  होते  है चाय  की पत्ती की  तरह . 

// .....मीठी चाय पसंद करने वाले बिना शक्कर डाले ही मीठी चाय की ख़्वाहिश रखें, तो चाय की पत्ती का क्या कसूर!"//------- बिलकुल  सही कथ्य उभारा है उपर्युक्त सन्दर्भों में आपने आदरणीय शहजाद  जी ,हालांकि प्रस्तुति  और  भी  बेहतर बन  सकती  थी . ऐसा  मेरा  मानना है . फिलहाल  एक  नई सोच  देखने को  मिली  है यहाँ आपकी  प्रस्तुति  में  जो  आपके गहन  चिंतन  का  परिचायक  है . बधाई प्रेषित है .

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