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 दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
 इस ज़िन्दगी में तुझसे यही सिलसिला करूँ | 
 
 दिन भर शराब पी के हुआ,था मैं दरबदर, 
 अब ढूंढता हूँ चादर ग़मों की सिला करूँ |
 
 नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
 दिल में बता खुदा, उनके, कैसे खिला करूँ | 
 
 अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
 ऐसे चमन  जमी दर ज़मीं  काफिला करूँ |
 
 तन्हा है सब सफ़र और तनहा हैं रास्ते, 
 अब सोचता हूँ तुझसे यहाँ ही मिला करूँ |
 
 मौलिक व अप्रकाशित © हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय Samar kabeer जी ग़ज़ल को दुबारा कहने की कोशिश की है आपसे तथा गुनीजनों से इस संशोदित रूप पर नज़र डालने की गुजारिश है | 
दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िंदगी को तुझसे कभी क्यूँ जुदा करूँ | 
 
 दिन भर शराब पीता हूँ रोता हूँ दरबदर,
 ज़ख्मों भरे मैं सीने को ऐसे सिया करूँ |
नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
 उनके दिलों में कैसे खुदाया खिला करूँ | 
 
 अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे शज़र ज़मीं पे लगाता चला करूं |
 जिसने मेरे दामन को टुकड़ों, में किया होगा, 
 अब ‘हर्ष’ सोचता हूँ मैं उससे मिला करूँ | 
०००
आदरणीय समर कबीर जी आदाब !! सबसे पहले तो आपका मैं तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ के आपने मेरी इस रचना पर कदम रखा और अपनी महतवपूर्ण राय मेरी इस तहरीर पर रखी | आपकी राय के मुताबिक मैं इसे एक बार दुबारा कहने की कोशिश करता हूँ और नए मिसरों के साथ फिर आपकी खिदमत में हाज़िर होता हूँ सर | आभार !!
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