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सारी उमर मैं बोझ उठाता रहा जिनका
उन आल-औलादों की वफ़ा गौर कीजिये
मरने के बाद मेरा बोझ ले के यूँ चले
मानो निजात पा गए हों सारे बोझ से

मैंने समझ के फूल जिनके बोझ को सहा
छाती से लगाया जिन्हें अपना ही जानकर
वे ही बारात ले के बड़ी धूम धाम से
बाजे के साथ मेरा बोझ फेंकने चले

अपने लिए ही बोझ था मै खुद हयात में
अल्लाह ये तेरा भला कैसा मजाक है
ज्योही जरा हल्का हुआ मै मरकर बेखबर
खातिर मै दूसरों के एक बोझ बन गया

लगती थी बोझ जिन्दगी उनके बिना मुझे
यह चाह थी मरकर कभी उनसे गले मिलूँ
मरकर भी बेवफा को जब मै न पा सका
लिल्लाह मेरी मौत मेरा बोझ बन गयी
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2014 at 5:01pm

महनीया

आपका बहुत बहत आभार i

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2014 at 10:05am
दो बड़ी बातें हैं इस रचना में , प्रथम , एक कटु सत्य , द्वितीय , यह शरीर भी अपना नहीं है , मृत्यु के बाद तो बिलकुल नहीं .
इस सुन्दर दार्शनिक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 28, 2014 at 9:58am

हृदय स्पर्शी रचना ..क्या करें यही अंतिम सत्य है ---ता  उम्र अपना बोझ किसी को छूने न दिया अंतिम सफ़र में लिल्लाह मेरे साथ मेरी खुद्दारी ने भी दम तोड़ दिया .

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