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होली की विरह कविता (ओमप्रकाश क्षत्रिय ''प्रकाश'')

मन तरसे

------------------------
तन तरसे मन तरसे .
होली का रंग बरसे .

मै हो गई प्रेम दीवानी
मुझे देख मधुकर हरषे .


फूल गई सब कालिया
मै सुखी निकली घर से .

कोयल कूके पपीहा गाए
भटकी मै बावरी घर से .

लगी हुई विरह वेदना
इलाज नहीं होता हर से .

मेरे प्रियत्तम आ जाओ

मिटे वेदना उस पल से .
=============

मौलिक व अप्रकाशित"
ओमप्रकाश क्षत्रिय ''प्रकाश''

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Comment

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Comment by Omprakash Kshatriya on March 11, 2014 at 8:23pm

मीना पाठक जी आप की प्रतिक्रिया के लिए  आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 11, 2014 at 9:54am

आदरणीय ओमप्रकाशजी इस कविता के लिये बधाई स्वीकार करें

Comment by Meena Pathak on March 10, 2014 at 10:20pm
Sundar rachna .. Badhai
Comment by सूबे सिंह सुजान on March 10, 2014 at 9:48pm

 Omprakash Kshatriya... आपने मन के भावों को अच्छी तरह से प्रकट किया है।

बहुत बधाई

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 10, 2014 at 9:14pm

किन्तु मेरे विचार से मधुकर कृष्ण का नाम नहीं है..उद्धव का नाम अवश्य भ्रमर है..कृष्ण को तो मधुसूदन कहते हैं..किसी प्रकार का विम्ब भी नहीं लग रहा..खैर..यदि यह कृष्ण है तो अच्छा है..एक बार पुनः बधाई हो..

Comment by Omprakash Kshatriya on March 10, 2014 at 9:04pm

भाई मनोज सिंह जी ' मयंक ' आप की प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ .

Comment by Omprakash Kshatriya on March 10, 2014 at 9:01pm

मै हो गई प्रेम दीवानी 
मुझे देख मधुकर हरषे ..............कृष्ण भगवान गोपियों के विरह पर मंद मंद मुस्करा का हसते है . यह उसी संदर्भ में है 

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 10, 2014 at 8:55pm

अच्छा है भाई..थोडा और अच्छा किया जा सकता था..और मुझे देख मधुकर हरषे वाली बात समझ में नहीं आ पायी..बधाई हो

कृपया ध्यान दे...

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