प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!
देह-पिपासा जब जगी, गए देह में खोय!
मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण!
राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान!!
राम चले वनवास को, सीता भी थीं साथ!
बेर चखे थे राम ने, ले शबरी के हाथ!!
मन का मन से मेल है, मन का मन से संग!
नेह-डोर पर मन सधा, बिसरा सब तन-अंग!!
देह मोह का बंध है, यह माया का जाल!
देह-नशा जब सिर चढ़ा, तब आसा का हाल!!
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय माथुर साहब आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सर नमस्कार, अनेकों रूपों का सही समावेश लिए हुए रचित दोहों के लिए आपको बधाई ।
आदरणीय वीनस जी आपका हार्दिक आभार!
प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!
देह-पिपासा जब जगी, गए देह में खोय!
वाह आदरणीय आपने तल्ख़ हकीकत को कितने शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है
हार्दिक बधाई
आदरणीय शिज्जू जी आपका हार्दिक आभार! रचना को आपके अनुमोदन ने मेरे प्रयास को सार्थकता प्रदान की!
वाह आदरणीय बृजेशजी खूबसूरत दोहावली रची है, आपकी रचना के भाव और इसका प्रवाह लाजवाब है, आपने अपनी बात बखूबी कही है, इस कामयाब रचना के लिये दिली दाद कुबूल करें
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
आपके कहे अनुसार मैं कुछ सुधर का प्रयास करता हूँ!
सादर!
आदरणीय बृजेश जी
बहुत सुन्दर सुगठित दोहावली प्रस्तुत की है आपने... हार्दिक बधाई
प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!.............बहुत सुन्दर पद
मीरा का भी प्रेम था , गिरधर में मन प्राण
राधा भी थी खो गयी , सुन मुरली की तान ........ अति उच्च भावों से समृद्ध ये दोहा कथ्य में कुछ अपूर्ण सा लग रहा है. ज़रा गौर कीजिये. क्या रचयिता सिर्फ एक बिम्ब खींचना चाहता है ??
सादर शुभकामनाएं
आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय रविकर जी आपका हार्दिक आभार!
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