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स्त्री मन की गाठें

कितने ही मरुथल
छूट गये पीछे
पगली आशाओं को
मुट्ठी में भींचे
नदिया सी रेतीली
राहों में बहती
कलुष भी वहन करतीं
धाराएँ जीवन की
अवचेतन में, गुपचुप
सुख दुःख को बांचें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
दादी अम्मा का
भैय्या को दुलराना
चुपके से, दूध- भात
गोद में खिलाना
किन्तु 'परे हट' कहकर,
उसे दुरदुराना
रह- रहकर कोचें
वह शैशव की फासें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
जागी आँखों का वह
सपन नये बुनना
इन्द्रधनुष के रंगों में
उनको रंगना
पंख ले उमंगों के
तितली सा उड़ना
तंग दायरों ने वे
फैले पर काटे
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें

कभी हुई सावित्री
कभी बनी सीता
जीवन को होम किया
देवी पद जीता
स्नेह लुटाया, फिर भी
अंचल था रीता
रिश्तों का महासमर
शकुनि की बिसातें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 7:37pm

अनेकानेक धन्यवाद जितेन्द्र 'गीत' जी.

Comment by shubhra sharma on August 31, 2013 at 6:55pm

आदरणीया विनीता जी आपने स्त्री मन की गाठो को खोल कर रख दी है | बहुत बहुत  बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 31, 2013 at 5:24pm

आदरणीय विनीता जी , बचपने से लेकर जीवन भर सही  हुई बातों से पडने वाली गाठों का बहुत अच्छा चित्रण किया आपने !! बधाई !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 31, 2013 at 5:23pm

सच! बहुत ही गहरा प्रभाव डालती है आपकी रचना, बधाई हो आदरणीया विनीता जी

Comment by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 5:20pm

हार्दिक धन्यवाद अन्नपूर्णा जी.

Comment by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 3:58pm

आदरणीया वंदना जी आपकी लेखनी को नमन , कितना प्रभावशाली लेखन है आपका । बहुत बढ़िया इस अनुपम रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें । 

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