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साँझ ढली तो आसमान से धीरे-धीरे

रात उतर आई चुपके-चुपके डग भरती

स्याह रंग से भरती कण-कण वह यह धरती

शांत हुआ माहौल और सब हलचल धीरे

 

कल-कल करती धारा का स्वर नदिया तीरे

वरना तो, सब कुछ शांत, भयावह रूप धरे

जीव सभी चुप हैं सहमे, दुबके और डरे

कुछ अनजानी आवाज़ें खामोशी चीरे

 

मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई

लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे

भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके

साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई

 

सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी

जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी

                                        - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Shyam Narain Verma on August 26, 2013 at 5:43pm
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!
Comment by बृजेश नीरज on August 26, 2013 at 5:42pm

आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 26, 2013 at 5:39pm

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 26, 2013 at 12:51pm

आदरणीय बृजेश भाई जी बेहद सशक्त अभिव्यक्ति बेहद सुन्दर चित्रण हृदयस्पर्शी भाव भरे हैं आपने इस रचना इस हेतु मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 12:24pm
बृजेश भाई , निराशा से आशा की ओर ले जाती, अन्धेरे से रोशनी की ओर आती इस सुन्दर रचना के लिये आपको बहुत बहुत बधाई !!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 26, 2013 at 11:27am

भाई बृजेश जी, आपकी  यह रचना आपके परिचित अंदाज़ से कुछ हट कर है. सुंदर है, स्पष्ट है. साधुवाद.

Comment by रमेश कुमार चौहान on August 26, 2013 at 10:53am

गंभीर चिंतन लिये प्राकृतिक चित्रण से सरोबर यह आपकी रचना निराली है । नीरजजी आपको बधाई

Comment by Meena Pathak on August 26, 2013 at 9:52am

सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी

जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी...........  बहुत सुन्दर, बधाई आप को 

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