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क्या कहूं मैं किस तरह तकदीर का मारा हुआ

सर्द रातें थीं मगर बिस्तर का बंटवारा हुआ

कहने को तो साथ हैं वो हर कदम ओ हर घड़ी 
फिर भी उनकी बेरुखी से दिल ये नाकारा हुआ

यूं तो अपने हर तरफ हैं शबनमी दरिया मगर
जब नजर अपनी पडी पानी सभी खारा हुआ

जिनकी उम्मीदों पे सांसें चल रही थीं आज तक
वो न अपने हो सके, अपना जहां सारा हुआ

हंस लो तुम भी दुश्मनों मौका तुम्हारे हाथ है
बाद मुद्दत के कहीं ‘चर्चित’ ये बेचारा हुआ


(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on January 20, 2013 at 2:49pm

अरुन भाई दाद के लिये दिल से शुक्रिया !!!

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on January 20, 2013 at 2:48pm

बागी भाई जी बहुत - बहुत शुक्रिया कि आपने मेरी गजल को सराहा......सच में आप जैसे गुणी जनों की सराहना अमूल्य है मेरे लिये.....!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 20, 2013 at 11:08am

वाह चर्चित साहब वाह क्या समां बंधा है लाजवाब ग़ज़ल सभी के सभी अशआर बेहद सुन्दर हैं खासकर ये कुछ ज्यादा रास आये, ढेरों दाद कुबूलें.

क्या कहूं मैं किस तरह तकदीर का मारा हुआ
सर्द रातें थीं मगर बिस्तर का बंटवारा हुआ

यूं तो अपने हर तरफ हैं शबनमी दरिया मगर
जब नजर अपनी पडी पानी सभी खारा हुआ


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 19, 2013 at 3:16pm

आय हाय हाय , जियो बंधू जियो, जिंदाबाद ग़ज़ल कही है, मतला से ही ग़ज़ल जो रवानी ली है अंत तक निभता चला गया , बहुत खूब , अच्छी ग़ज़ल, बहुत बहुत बधाई श्रीमान ।

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on January 18, 2013 at 9:57pm

आभार राम भाई !!!!

Comment by ram shiromani pathak on January 18, 2013 at 7:35pm

उत्तम अति उत्तम महोदय ,

क्या कहूं मैं किस तरह तकदीर का मारा हुआ
सर्द रातें थीं मगर बिस्तर का बंटवारा हुआ

जिनकी उम्मीदों पे सांसें चल रही थीं आज तक
वो न अपने हो सके, अपना जहां सारा हुआ!

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