For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २८

जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई

नदी समन्दर के पास आकर मर गई

 

रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया

दिन निकला तो लंबी रात किधर गई

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई

 

दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे

अबके बरस छत की कलई उतर गई

 

जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें

दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई  

 

हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे

इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई  

 

मैं दूर शह्रमें कईबार तन्हा बीमाररहा  

सालमें कभीकभार मेरेगाँव खबर गई

 

मैं अपने दर्दको सहता उम्र खोता रहा  

ज़िंदगी गिनगिनके पायदान उतर गई

 

मैं इतना भी न भरा था अपने दुखसे

आँख ही थी मेरी, तेरे गमसे भर गई

 

बादलका इकरेज़ा बन पानी अर्श गया

इक नदी पहाड़ोंसे नीचे मैदां उतर गई

 

दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर

न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई

 

कहाँ है मयस्सर सबको घर जीने को

गरीबकी डोली थी रास्ते में उतर गई

 

राज़ अब कयाम करते हैं अपनी सोचो

बुजर्गोंकी कमाईथी तो पुस्त संवर गई

© राज़ नवादवी

भोपाल, ११.४१ रात्रिकाल, १७/०९/२०१२

 

 

Views: 815

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Rekha Joshi on September 19, 2012 at 11:31pm

दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर

न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई खूबसूरत गजल राज़ जी ,हार्दिक बधाई 

 

Comment by प्रमेन्द्र डाबरे on September 19, 2012 at 8:29pm

ज़माने की दुश्वारियों से पीछा छुड़ाकर मैं जब

ऑनलाइन हुआ तो राज से दोस्ती हो गयी.

तेरी ये ग़ज़ल जब मैंने देखी ए दोस्त

ज़िन्दगी की कुछ तो कमी दूर हुयी......... प्रमेन्द्र डाबरे

Comment by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 11:16am

आदरणीय योगराज जी, आपकी दादोतःसीन सर आँखों पे. बाशुक्रिया कबूल फरमाता हूँ.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 19, 2012 at 11:02am

बेहद खूबसूरत कलाम राज़ साहिब, यूं तो सभी अश'आर एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर हैं मगर मंदर्जा दो शेअर सीधे दिल में उतर गए,

//'दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे
अबके बरस छत की कलई उतर गई //

//जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें
दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई   //

इस शानदार ग़ज़ल के लिए मेरी दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं.

Comment by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:46am

आदरणीय लोकेश जी, आपकी प्रशंसा और वक्तव्य का बहुत बहुत धन्यवाद, बहुत हौसला अफजाई हुई. सादर!

Comment by लोकेश सिंह on September 19, 2012 at 9:56am

कहाँ है मयस्सर सबको घर जीने को

गरीबकी डोली थी रास्ते में उतर गई

बहुत खुबसूरत रचना ,दिलमे गहरी पैठ बनाके  दिमाग को कुछ सोंचने को मजबूर करती हुयी, गजल के सार्थ उद्देश्य के साथ , बहुत बहुत साधुवाद....

Comment by राज़ नवादवी on September 18, 2012 at 9:58pm

आदरणीया राजेश जी, बहुत खुशी हुई ये जानकार कि आपको हमारी ये गज़ल पसंद आयी. आपका बहुत बहुत शुक्रिया. 

करीब एक महीना अकेला बैंगलोर रहकर भोपाल घर आया था.बैंगलोर में ऑफिस के बाद की तन्हाई भी इस कदर कि पूरी बिल्डिंग में मै इक बशर, न कोई टीवी और न कोई तफ़रीह का दूसरा ज़रिया. मुझे जैसे तन्हाई के साथ जीने की आदत सी हो गई थी. घर आकर अपनों के बीच भी ऐसा लग रहा था कि कहीं अंदर मैं अभी भी अकेला हूँ, और तब बैंगलोर की उस तन्हाई की याद हो आई जो अब मेरे पास नहीं थी. 

जिस शेर का आपने ज़िक्र किया है उसका पसेमंज़र बस यही है.

-राज़ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 18, 2012 at 10:24am

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है राज नवाद्वी जी सभी लाजबाब शेर हैं अंतिम तो सुभान अल्लाह

 राज़ अब कयाम करते हैं अपनी सोचो

बुजर्गोंकी कमाईथी तो पुस्त संवर गई

दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर

न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई---ये शेर भी गजब है किसकी तारीफ करूँ किसकी नहीं सभी एक से बढ़कर एक शेर हैं 

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई------
ये शेर कुछ उलझा हुआ लग रहा है या मेरी समझ का फर्क है ???

 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
5 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"सहर्ष सदर अभिवादन "
12 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, पर्यावरण विषय पर सुंदर सारगर्भित ग़ज़ल के लिए बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय सुरेश कुमार जी, प्रदत्त विषय पर सुंदर सारगर्भित कुण्डलिया छंद के लिए बहुत बहुत बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय मिथलेश जी, सुंदर सारगर्भित रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
15 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
18 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई सुरेश जी, अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर कुंडली छंद हुए हैं हार्दिक बधाई।"
20 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
" "पर्यावरण" (दोहा सप्तक) ऐसे नर हैं मूढ़ जो, रहे पेड़ को काट। प्राण वायु अनमोल है,…"
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। पर्यावरण पर मानव अत्याचारों को उकेरती बेहतरीन रचना हुई है। हार्दिक…"
22 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"पर्यावरण पर छंद मुक्त रचना। पेड़ काट करकंकरीट के गगनचुंबीमहल बना करपर्यावरण हमने ही बिगाड़ा हैदोष…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"तंज यूं आपने धूप पर कस दिए ये धधकती हवा के नए काफिए  ये कभी पुरसुकूं बैठकर सोचिए क्या किया इस…"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service