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ग़ज़ल: इश्क़ समझे न कोई दीवाना

2122 1212 22

देख कर मुस्कुराना शर्माना
इश्क़ समझे न कोई दीवाना

है कयामत हर इक अदा इनकी
जुल्फ़ें बिखराना हो या झटकाना

सिर्फ़ आता है इन हसीनों को
दिल चुराना चुरा के ले जाना

क्यों किसी का यूँ दिल जलाते हो
क्यों बनाते हो यूँ ही दीवाना

कितना मुश्किल है चाहतों में सनम
पास रहकर भी दूर हो जाना

बेक़रारी में आहें भरता है
जी न पाता है कोई दीवाना

साल हा साल लम्हा दर लम्हा
जलता रहता है दिल का वीराना

ज़िंदा रहना हो इक सज़ा जैसे
सांस लेना हो कोई ज़ुर्माना

हमने माना कि दिल है दीवाना
कोई अपना है कोई बेगाना

रात है रात कब गुज़रती है
रोज़ भरते हैं कितना हर्ज़ाना

यक ब यक चौंक जाते हैं अक्सर
देख कर खाली खाली सिरहाना

कोई शम्मा है कोई परवाना
कोई पागल है कोई मस्ताना

हर किसी पर ही इक खुमारी है
हर किसी आँख में है मयखाना

दर्द आकर ठहर सा जाता है
दर्द अपना हो या हो बेगाना

दिल हुआ इश्क़ में तमाम "आज़ी"
फ़िर भी क्यों खूँ चकां है अफ़साना

(मौलिक व अप्रकाशित) 

आज़ी तमाम

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Comment

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Comment by Samar kabeer on March 18, 2021 at 3:08pm

जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'यक ब यक चौंक जाना घवराना

देख कर खाली खाली सिरहाना'

ये मतला निकाल दें ।

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