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दीप के हौसले याद आने लगे (बह्र-ए-मुत्दारिक -16 रुक्ऩी )

212  /  212 /  212 /  212  /  212 /  212 /  212 / 212

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चाँद से रूठ के जब गई चाँदनी, कुर्बतो-फासले याद आने लगे 

जब हवा में नमी आज छाने लगी, दो नयन बावले याद आने लगे

 

वो अमरबेल तो पेड़ को खा रही, शाख के फूल से शबनमी जा रही

देखता ही रहा गौर से जो उसे, कुछ दबे मामले याद आने लगे

 

सच बताओं मुझे ये कहाँ है लिखा, आज क़ानून का मैं तलबगार हूँ

फिर अदालत कभी तो कभी मुफ़लिसों के रुके फैसले याद आने लगे

 

रात बाकी अभी बात बाकी अभी, दीप मत तीरगी से निभा दुश्मनी

रात ने टाल दी बात भी वो मगर दीप के हौसले याद आने लगे

 

दो परिन्दें जुदा आसमां के हुए, देख के एक तस्वीर छाने लगी

वो गली, वो सड़क, मोड़ के पेड़ पे शाम के मरहले याद आने लगे

 

है शिवालें कहीं तो कहीं मस्जिदें, कांपता दिल गली से निकलते हुए

यूं गुज़र के गए थे जो पिछले बरस, बेरहम जलजले याद आने लगे

 

भागती ज़िन्दगी में कभी दो घड़ी, देख के यूं सड़क पे जवाँ कारवां

मस्तियाँ, कान की बालियाँ देखते इस्कुली मनचले याद आने लगे

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर 
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बह्र-ए-मुत्दारिक मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (16 रुक्ऩी )

अर्कान – फाइलुन/फाइलुन/ फाइलुन/फाइलुन/ फाइलुन/फाइलुन/ फाइलुन/फाइलुन

वज़्न –   212  /  212 /  212 /  212  /  212 /  212 /  212 / 212

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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 28, 2015 at 1:38pm

ग़ज़ल का यह प्रयास आपको पसंद आया, मन खुश हो गया. इस सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ आदरणीया कांता जी.

Comment by kanta roy on July 28, 2015 at 10:03am
रात बाकी अभी बात बाकी अभी, दीप मत तीरगी से निभा दुश्मनी
रात ने टाल दी बात भी वो मगर दीप के हौसले याद आने लगी ....... बहुत खूब गजल कही है आपने । वाह !!!!

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 18, 2014 at 11:10am
ग़ज़ल के संशोधन को अप्रूवल के लिए आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 7:42pm
गुणीजनों के मार्गदर्शन से ही दोष निवारण हो पायेगा । मुझे इस के लिएकोई नया काफ़िया नहीं सूझ रहा है

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 7:40pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर आपने रचना को समय दिया और बेहतरीन सुझाव दिया उसके लिए बहुत बहुत आभार धन्यवाद। शीघ्र ही आपके निर्देशानुसार संशोधन करता हूँ शेष दो अशआर के लिए भी सहयोग और आशीर्वाद चाहता हूँ । मैंने घोसले और मनचले सोचा है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 17, 2014 at 8:56am

आ. मिथिलेश भाई , चाहें तो आप निम्ननुसार सुधा कर सकते हैं , अगर पसन्द आये तो ---

चाँद से रूठ के जब गई चाँदनी, कुर्बतो-फासले याद आने लगे 

जब हवा में नमी आज छाने लगी, दीद के मरहले याद आने लगे 

इससे दोष दूर हो जायेगा , ग़ज़ल खारिज नही होगी  , काफिले और दाखिले वाले शे र सुधार लीजियेगा  न भी सुधरे तो गज़ल मे पाँच अशआर बच ही रहेंगे । सोच के देखियेगा


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 3:58am

काफिया मे इता दोष को सुधारने का प्रयास कर रहा हूँ पर बात नहीं बन रही ... गुनीजनों से मार्गदर्शन का निवेदन है 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2014 at 10:38pm

आदरणीय  vijay nikore जी आपने रचना को समय दिया, आभार धन्यवाद 

Comment by vijay nikore on December 16, 2014 at 9:28pm

बहुत सुन्दर भाव... बधाई


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2014 at 8:34pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपने सही कहा, दोष तो आ गया है ..सुधारने का प्रयास करता हूँ .. लेकिन कठिन लग रहा है... आपके आदेशानुसार गुनीजनों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता हूँ. आपने रचना को समय दिया और मार्गदर्शन भी, बहुत बहुत आभार धन्यवाद 

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