For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

किवाड़ के खड़कने के आवाज़ पर

दौड़ कर वो कमरे में चली गयी

आज बाबूजी कुछ कह रहे थे माँ से

अवाज़ थी, पर जरा दबी हुई

 

बात शादी की थी उसकी चल पड़ी

सुनकर ये ख़बर जरा शरमाई थी

आठवीं जमात हीं बस वो पढ़ी थी

चौदह हीं तो सावन देख पाई थी

 

हाथ पिले करना उसके तय रहा

बात ये बाबूजी जी ने उससे कह दिया

एक अनजाने पुरुष के साथ में

दान कन्या का पिता ने कर दिया

 

था पति वो रिश्ते के लिहाज़ से

बाप के वो उम्र का था दिख रहा

साथ अपने एक नई सी राह पर

सहमी सी एक कली को ले जा रहा

 

चेहरे पर ना ख़ुशी के भाव थे

चाल में ना कोई उत्साह था

पूरी राह कुछ बात ना हो पाई थी

आपसी सहमती का अभाव था

 

कोई उससे पूछता उसकी चाह भर

सोच भर किसी की ऐसी ना रही

टूटते इच्छाओं को मन में लिए

साथ उसके वो थी यूँही चल पड़ी

चाह थी ना राह थी, ना कोई परवाह थी

एक बदन की आर में फंसी ये विवाह थी

मन में उसकी आह थी, वो तन से ना तैयार थी

हर रात मिलने वाली उसकी ये व्यथा अथाह थी

 

छोटी सी उम्र उस पर पुरे घर का काम था

दिन में ना थी छूट ना ही रात को आराम था

तन दाग से थे भरे और मन में उसके घाव था

उसके पति को उससे थोडा भी ना लगाव था

 

बदजुबानी दसुलुकी रोज़ हीं की बात थी

सब वो सहती रही फिर भी उसिके साथ थी

चाह कर भी बाबूजी से ये बोल न वो पाई थी

बात थी अब की नहीं ये ऊन दिनों की बात थी

कुछ दिनों में साथ उसको शहर ले वो चल गया

जो नहीं थी चाहती वो काम ऐसा कर गया

दूर अपने घर से होकर दिल ये उसका भर गया

तन तो उसके साथ ही था मन यही पर रह गया

 

तन के कपडे फट चुके थे पैरों में चप्पल नहीं

दो दिनों से पेट में था अन्न का दाना नहीं

क्या करे वो किसे बताये कुछ समझ आता नहीं

चार दिन से उसका पति लौटकर आता नहीं

 

पेट में बच्चा है उसके आखरी माह चल रहा

दो कदम भी चल सके वो अब न उसमे बल रहा

वो न लौटेंगे अभी के काम ना हो पाया है

अपने एक साथी के हाथों उसने ये कहलवाया है

सालों पार हो गए पर हाल अब भी यह रहा

आज भी पति उसका ना काम कोई कर रहा

चार बच्चों को पालने में उम्र बीती जा रही

आज भी वो साथ उसके शादी ये निभा रही

 

यातना ये वर्षों की थी दिन-दो-दिन की थी नहीं

दर्द ही पीया था उसने खुशियां उसकी थी नहीं

जुल्म की बयार उसको रौंदती चली गयी

खुद के जन्मे बच्चों को भी भूलती चली गयी

 

स्वास्थ गिर चूका है उसका सब्र भी जाता रहा

दर्द के इस सागर में सुध भी गोता खा रहा

मार-पिट और भूख से वो पार ना हो पाई थी

मानसिक सुधार घर में खुद को एक दिन पाई थी

 

कुछ दिनों में हीं उसको लौटके घर जाना पड़ा

सुखी रोटी साथ नमक के समझे बिन खाना पड़ा

आज भी पति उसका जल्लाद ही बना रहा  

चोट देने को उसे वो सामने तना रहा

 

बच्चे उसके भूख से सामने तिलमिला रहे

पेट मलते आह भरते अपनी माँ से कह रहे

देख के ये मार्मिक दृश्य देव भी थे रो पड़े

माँ के सुध को फेरने अब वो स्वयं थे चल पड़े

कुछ दिनों के बाद अब वो पूरी तरह से स्वस्थ थी

अपने बच्चों के लिए वो जीने को प्रतिबद्ध थी

खून जलाकर अपना उसने बच्चों को जिलाया था

खुद रही भुखी मगर अपने बच्चों की खिलाया था

 

 

छोड़ के भागा उसे फिर वर्षों तक ना वो लौटा था

मुड़ के पीछे बीते कल को फिर इसने भी ना देखा था

मेहनत और मज़दूरी से अपने बच्चों को बड़ा किया

बेटी को ब्याहा बेटों को अपने पैरों पर खड़ा किया

पूरी ज़िन्दगी खाक हो गयी बच्चों को बनाने में

एक पल भी लगा नहीं बच्चों को उसे भगाने में

जीवन के भट्टी में खुदको जिनके खातिर झोंक दिया

उन्ही बच्चों ने मानो उसके ह्रदय पर जैसे चोट किया

 

छोड़ चले सब उसको अपनी खुशियों के ठिकाने पर

प्राण छूटे तो पड़े मिले तस्वीर सबकी सिरहाने पर

कैसी नारी है जो अब भी इतना सब कुछ सह लेती है

दर्द सभी के अश्क सभी के अपने दिल में भर लेती है

 

क्षमा कर हमें हे भगवन हमने उसको तड़पाया है

तू खुश रखना उसे हमेशा हमने बहुत रूलाया है

बहुत कहा मैंने लेकिन अब आगे न लिख पाऊँगा

खुद के आसूंओं को मैं आँखों में रोक अब ना पाऊँगा

"मौलिक व अप्रकाशित" 

अमन सिन्हा 

Views: 223

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by AMAN SINHA on March 30, 2022 at 9:55am

@Samar kabeer साहब, 

आपके टिप्पणी और सुझाव के लिये मैं अभारी हूँं।

आपको मालुम हो कि ये कविता मैंने लगभग दो साल पहले लिखी थी जब मैंने लिखना शुरु ही किया था। मैं जानता हूँ बहुत सी गलतियां है इसमें लेकिन मैं इसे बदलना नहीं चाहता था। कुछ एक चिज़ों से हमें इतना लगाव होता है की उसकी ख़ामियां भी भली लगती है। यहाँ बात मेरे भावुकता की है। 

किंतु आप मेरे वरिष्ठ है आपकी सलाह मेरे लिये बहुत महत्वपुर्ण है। ऐसे ही अपना आशिर्वाद बनाये रक्खें। मैं अपने सुधार में कोई कमी नहीं रखना चाहता। 

Comment by Samar kabeer on March 29, 2022 at 3:50pm

जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, शब्दों की वर्तनी,व्याकरण और शिल्प पर आपको अभी बहुत मिहनत करने की ज़रूरत है, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
17 hours ago
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service